Karwa Chauth : करवा चौथ

करवा चौथ व्रत का फैशन

     महिलाओं में धर्म, पूजा-पाठ एवं व्रत फैशन की तरह चलता है। या यूं कहें कि महिलाओं में तथाकथित धार्मिक गतिविधियाँ एक संक्रामक बीमारी की तरह फैलती है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
    इन दिनों बिहार और यूपी (उत्तर प्रदेश) की महिलाओं में करवाचौथ नाम के व्रत का फैशन चल पड़ा है, जो कि पिछले 10-15 सालों से बहुत ही जोर मार रहा है।
    फिल्मों से प्रभावित होकर बिना कुछ आगे-पीछे सोचे-समझे आज बिहार और यूपी के अधिकांश हिन्दू महिलाओं में यह भावना घर कर रही है कि अगर वो इस करवाचौथ व्रत का पालन नहीं करेंगी तो इससे उनके दाम्पत्य जीवन पर कुप्रभाव पड़ेगा और शायद उनके पातिव्रत्य धर्म को भी शक की निगाहों से देखा जाय।
    पतियों की रक्षा एवं सदा सुहागन बने रहने की मनोकामना वाला यह पर्व मूल रूप से पंजाब एवं हरियाणा की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला लोक/ग्राम्यपर्व है।
    जिस प्रकार बिहार का छठ पूजा, असम का बिहू, झारखण्ड का सरमा पूजा, केरल का ओणम, राजस्थान का गणगौर पूजा, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू घाटी का दशहरा के अवसर पर देवी हिडिम्बा एवं रघुनाथ जी का पूजन लोकपर्व या ग्राम्य पर्व के रूप में प्रचलित हैं, उसी प्रकार यह करवा चौथ मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में अति प्राचीन समय से मनाया जाने वाला पर्व है।

 
    दिल्ली में पंजाबी मूल के लोगों का मुगलों के समय से ज्यादा संख्या में बसे रहने के कारण वहाँ भी इसका प्रचार-प्रसार एक पुराने समय से है।
    पूरे भारत के लोगों ने इस करवाचौथ व्रत को बॉलीवुड की फिल्मों यानी मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री के माध्यम से जाना।
    यद्यपि अन्यान्य फिल्मों में भी इस व्रत की महिमा और इसकी शूटिंग दिखाई गयी, लेकिन इस व्रत की सबसे बड़ी आवाज बनकर उभरी वर्ष 1996 में आई शाहरूख खान, काजोल, अमरीश पुरी और फरीदा जलाल अभिनीत फिल्म ‘‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’’ से। इस फिल्म की अपार सुपर-डुपर हिट सफलता लोगों के दिलोदिमाग में जबरदस्त रूप से घर कर गयी। शायद इसी फिल्म में स्व॰ अमरीश पुरी भी एक कड़क जिम्मेवार पिता के रूप में पहली बार नजर आये। शाहरूख खान और काजोल की दिलकश अदा ने फिल्म को केवल मनोरंजन न रहने देकर जीवन का एक अंग भी बना दिया। तो करवाचौथ व्रत के फैलने का ये एक बहुत बड़ा कारण रहा, जो कि दो-तीन पंजाबी परिवारों के घरों की कहानी मात्र थी। इस फिल्म में एक पूरा गाना और अधिकांश सीन करवाचौथ व्रत के ही नाम समर्पित रहा।
 
    इस फिल्म के बाद भी अन्यान्य फिल्मों में इस सुपर-डुपर हिट फॉर्मूले को खुब आजमाया गया। नई आनेवाली बहुत सारी फिल्मों में करवाचौथ पर कम-से-कम एक सीन या एक गाना अवश्य रहा। और रही-सही कसर टेलीविजन चैनलों पर डेली-सोप की तरह आनेवाली महिलाआंे के लिए धारावाहिकों ने पूरी कर दी। जहाँ इतना अंधविश्वास फैलाया गया कि अगर पति हॉस्पीटल मंे आईसीयू में भर्ती है और उसकी पत्नी ने करवाचौथ का व्रत रखकर चाँद को छलनी में देख लिया तो उसका पति अचानक खतरे से बाहर लौट आया। इन धारावाहिकों में तो इतनी फेंक-फाँक दिखाई गयी कि जैसे ही पत्नी के व्रत टूटने का समय हुआ कि पति के हाथ से पानी पीकर व्रत तोड़ेगी तो अचानक करवाचौथ माता की कृपा से उसकी बेहोशी जाती रही और वह अस्पताल के सारे सुरक्षा व्यवस्था और चिकित्सा को धता बताकर मलहम-पट्टी खोलकर अकेले ही दौड़ लगा दिया और अपनी पत्नी को अपने हाथों से जल पिलाकर ही दम लिया।

 
    शाम के 7ः45 बजे तक जिस मरीज के बचने की भी उम्मीद नहीं थी, उसी मरीज को अचानक 08ः00 बजे रात्रि में जबरदस्त ताकत एवं सामर्थ्य आ जाता है, जब उसकी पत्नी पूजा का सामान लेकर रात्रि में 08ः00 बजे घर की छत पर चढ़ती है। हाँ, तो इतना अनावश्यक अंधविश्वास इन सीरियल्स ने फैलाया। इस करवाचौथ व्रत का प्रचार-प्रसार एवं फैशन इतना विश्वव्यापी प्रसिद्ध हो गया कि अब इसके आगे सुहागिनों द्वारा किए जाने वाले अन्य स्थानीय व्रत-त्योहारों जैसे राजस्थान का गणगौर व्रत, यूपी एवं बिहार का कजली तीज और हरतालिका तीज, वट सावित्री व्रत, मिथिलांचलन का चौथ-चंदा व्रत इत्यादि की महिमा गौण होते जा रही है।
 
    मेरी आज की बात किसी व्रत के प्रचार-प्रसार को लेकर नहीं है। बल्कि बिना व्रत को जाने-समझे उसके अनावश्यक अंधानुकरण को लेकर है।
 

 
    मैंने पहले ही कहा कि महिलाओं में व्रत या पूजा-पाठ फैशन अथवा संक्रामक बीमारी की तरह फैलती है। मेरी शिकायत बिहार एवं उत्तर प्रदेश मूल की उन महिलाओं से है, जो कि बिना कुछ आगे-पीछे सोचे-समझे केवल फिल्मों से प्रभावित होकर इस व्रत को करने लगी हैं।
    मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री में शुरू से ही पंजाबियों का बोलबाला एवं वर्चस्व रहा है। उन्होंने पंजाब की ग्राम्य संस्कृति को पूरी भारत की सबसे समृद्ध एवं संस्कारित सांस्कृतिक जीवन के रूप में पेश किया। उस समय फिल्मों के जितने बड़े चेहरे थे, जैसे दिलीप कुमार, मनोज कुमार, राजकपूर, पृथ्वीराज कपूर और उनका परिवार, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, मदन पुरी, के.एल. सहगल या अन्यान्य कलाकार जैसे गीतकार, संगीतकार, निर्माता, निर्देशक सभी पंजाब या पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब जिले से ही थे। तो निश्चित है कि इनकी लोक संस्कृति, जीवन जीने का ढंग, धार्मिक विश्वास एवं सामाजिक गतिविधियाँ, राजनीतिक विचार इत्यादि की झलक फिल्मों में भी देखने को मिली।
 

 
    मैं इस बार स्वयं ताज्जुब में रह गया कि मेरे आसपास की, जान-पहचान की लगभग 30-40 औरतों ने भी यूं ही इस व्रत को किया और अपने-अपने व्हाट्सअप ग्रुप में या फेसबुक पर इसको वायरल भी किया, इसका स्टेटस भी लगाया। बिना ये जाने कि करवा माता क्या है, कोन है, गणेश चतुर्थी के दिन इनकी उपासना क्यों, बिना संपूर्ण व्रत विधि-विधान जाने केवल फिल्मों की परिपाटी और कुछेक दृश्यों की भौंडी नकल करके इस व्रत को संपन्न किया। व्रत के नाम पर बस केवल इतना ही जानती हैं कि दिन भर भूखे रहकर शाम को चंद्रोदय के समय छलनी में पहले पति को देखना फिर चांद को देखकर पति के हाथ से दूध, शर्बत या पानी पीकर व्रत को खोलना। परंतु इस व्रत का अधिष्ठाता देव कौन है, इसकी बलि कौन ग्रहण करेगा, बिना ये सब कुछ जानते हुए ही व्रत कर रही हैं। मैं उस समय शॉक रह गया, जब देखा कि प्रौढ़ उम्र की भी बहुत सारी उन महिलाओं ने भी इस बार इस व्रत को पहली बार धारण किया, जिनकी बेटियाँ स्वयं ससुराल जाने लायक हो गयी। करीब 45-50 वर्ष की भी औरतों ने इस व्रत को पहली बार धारण किया। मैं उन सभी श्रद्धालु मूर्ख महिलाओं से बस यही पूछना चाहता हूँ कि क्या कल तक जब यानी पिछले साल तक जब इस व्रत को नहीं करती थीं, तो उनका पति जीवित नहीं था क्या?
 
    देखो, महिलाओं की एक फितरत होती है, व्रत-त्योहार के नाम पर नई-नई शॉपिंग का। हर व्रत पर नई साड़ियाँ, गहने, चूड़ियाँ और श्रृंगार के अन्य सामान चाहिए ही। तो एक पंथ, दो काम उनके हो जाते हैं।     वास्तव में ये सारे व्रत पति से प्रेम के नाम पर उनके आर्थिक दोहना का ही बहाना मात्र है।
    पहले मेरी जाति में भी तीज व्रत की कोई परिपाटी नहीं थी। मेरी माताजी, दादी, और परदादी ने एवं ननिहाल में भी नानी और मामियों ने कभी तीज या इसके जैसा कोई अन्य व्रत नहीं किया। तो क्या इनके पति ने लंबी उम्र नहीं पाई या जीवित नहीं रहे।
    मेरी जब नई-नई शादी हुई थी तो मेरे छोटे भाई ने जबरदस्ती मेरी पत्नी को मेरी लंबी आयु के लिए यह तीज व्रत धरवा दिया था। पर इससे पहले न तो मेरे खानदान में और उसके नैहर के खानदान में किसी ने इस व्रत को किया था। संजय दत्त और आफताब शिव दासानी अभिनीत एक फिल्म में हीरो को हमेशा अपनी पत्नी से यही शिकायत रहती थी कि जब भी उसे अपनी पत्नी से प्रेम करने का मन होता तो उसकी पत्नी कोई-न-कोई व्रत, कभी संतोषी माता का व्रत, कभी दुर्गा माता का, कभी काली माई, कभी वैष्णो देवी, कभी लक्ष्मी माता का, कभी मंगलवार का कभी गुरुवार का तो कभी एकादशी, कभी पूर्णिमा के व्रत में रहती। और जब इनसे भी नहीं होता तो कभी अपनी माँ का व्रत तो कभी पड़ोसी के माँ का भी व्रत रख लेती थी। इतनी सारी बातें लिखकर इन सारे सवालांे को मैं यहीं पर अनुत्तरित छोड़ता हूँ, आप सभी महिलाओं के स्वयं निर्णय के लिए कि क्या यह सर्वर्था उचित है, अथवा नहीं।
    अगर मुझसे मेरा मत पूछा जाय तो बस यही कहूंगा कि देखो मात्र एक दिन के किसी व्रत से आपके पति की कोई लंबी आयु नहीं होती। न तो पति की आयु बढ़ती है और न ही प्रेम मिलता है। उनका वास्तविक प्रेम तभी मिलेगा, जब आपमें पूर्ण समर्पण की भावना हो। उनके स्वास्थ्य की रक्षा तभी होगी, जब आप उन्हें नियमित स्वास्थ्यवर्द्धक हेल्दी, पौष्टिक खाना नियत समय पर देंगी। पति के सुख-दुःख में साथ निभायेंगी ओर ससुराल वालों को बराबर का सम्मान देंगी। घर में सुख-शांति एवं समृद्धि (बरकत) तभी आएगी जब आप नियमित कुछ देर ही सही, अपने इष्ट देव-देवी की पूजा करेंगी, उनसे प्रार्थना करेंगी एवं निष्काम भक्ति करेंगी।
    अगर हाँ, इस प्रकार के व्रत से अगर आपको पति से कुछ धन ऐंठने का बहाना मात्र है, तो कोई बात नहीं, मुझे आपके इस निजी मामले में कुछ नहीं कहना। परंतु एक बात स्पष्ट कहता हूँ कि इस प्रकार के कोई भी एक दिन के व्रत से आपके पति एवं बच्चों की आयु नहीं बढ़ती। अगर करना ही है, तो उनके लिए संकल्प लेकर महामृत्यंुजय मंत्र का जप करो और कवच का पाठ करो। रक्षा प्राप्ति के लिए देवी दुर्गा एवं भवगती काली जैसी महाशक्ति की आराधना करो।
 
 
    भगवान शिव एवं माता गौरी-पार्वती का भारत के धार्मिक जन-जीवन में इतना गहरा प्रभाव है कि महिलाओं द्वारा किए जाने वाले लगभग सभी व्रतों में उनकी एक-न-एक कहानी अवश्य जोड़ दी गयी है कि इस व्रत को करने से माता पार्वती को भगवान शिव प्राप्त हुए थे।
    पर आज इन सारी बातों को मैं एक सिरे से नकार देता हूँ, काट देता हूँ कि माता पार्वती ने इस प्रकार के किसी भी एक दिवसीय व्रत को धारण नहीं किया था। बल्कि उन्होंने केवल प्राण को ब्रह्मरंध्र में चढ़ाकर अति विराट कठिन तपस्या की थी, जिसका उल्लेख सभी प्राचीन धर्म ग्रंथों में है।

सार संक्षेप:-

    इतना सब कुछ कहने के बाद सभी महिलाओं एवं अन्य लोगों को बस यही कहना चाहता हूँ कि प्रत्येक स्थान और क्षेत्र विशेष की अलग-अलग लोकभाषा, संस्कृति और ग्राम्य जीवन होता है। बिना उचित ज्ञान लिए किसी भी चीज का अनावश्यक बेमेल मिश्रण नहीं करना चाहिए। इस विश्वग्राम संस्कृति (ग्लोबल विलेज कल्चर) में ऐसा न हो कि हमारे महान पर्वों की मौलिकता और उसकी वास्तविक संस्कृति ही खो जाये और कालांतर में वो अपनी पहचान के लिए ही मोहताज हो जाय। जैसे नवरात्रि के अवसर पर गुजरात में खेला जाने वाला गरबा लोकनृत्य। यह आज फिल्मी फैशन की बलि चढ़ चुका है। अब इसका आयोजन केवल आडम्बरपूर्ण और विज्ञापनबाजी एवं फिल्मी भौंडेपन और छिछोरे आर्केष्ट्रा वालों की भेंट चढ़ चुका है। बहुत सारी कंपनियाँ और समितियाँ इसका आयोजन केवल अपने निहित स्वार्थ की पूर्त्ति हेतु ही करवाती हैं। अनेक बार नये फिल्म या धारावाहिकों के नये एक्टर या एक्ट्रेस को लाँच करने के लिए ही इसका आयोजन किया जाता है। अब वो धार्मिकता एवं आध्यात्मिक स्वरूप इसका कहीं खोता जा रहा है। इसी प्रकार अन्य बहुत सारे धार्मिक महोत्सवों का हुआ है। डर है कि कहीं ऐसा ही कुछ हाल करवा चौथ या अन्य व्रतों का न हो जाय।
    प्रत्येक ग्राम की अलग संस्कृति होती है। प्रत्येक परिवार का अलग कुलदेवता होता है। अब अगर किसी हिमाचल प्रदेश के व्यक्ति ने देवी हिडिम्बा की महिमा पर पिक्चर बना दिया, तो क्या अब बिहार के लोग हिडिम्बा देवी की पूजा करने लगेंगे। देखो, हिन्दुस्तान में धार्मिक संस्कृति और लोकाचार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत ही गहरे समाया हुआ है। इससे यहाँ इंकार नहीं किया जा सकता। ग्राम का तो छोड़ो, प्रत्येक जाति का भी अलग देवताओं की परिकल्पना यहाँ की गयी हैं। जैसे यादवों के भूइयाँ बाबा, आदिवासियों के सिंगा बोंगा, उत्तर प्रदेश के वाल्मिकी समाज के लोगांे की आशा मेस्तरानी, पिछड़े वर्ग के बहुत सी जातियों के रामठाकुर, फिर पंजाब के ग्राम देवताओं में बाबा बालक नाथ, मारवाड़ियों की रानी सती दादी, खाटू वाले श्याम जी महाराज ऊर्फ बाबा बर्बरीक या फिर किन्नरों के अरावन देवता इत्यादि। तो फिर क्या कोई भी जाति के लोग किसी भी जाति के देवताओं की पूजा करने लगेंगे। इससे धर्म की वास्तविक मौलिकता समाप्त हो जाएगी। देखो, परिवार से ही जाति और ग्राम का विकास हुआ है। जो आज जाति का देवता है, वो सदियों पहले किसी परिवार का ही महापुरुष था। कालांतर में उनके वंशज बढ़ते गए और उनसे जाति एवं गाँव का विकास हुआ। अब मेरे पटना सिटी के रानीपुर गाँव में मेष संक्रांति के अवसर पर जिसे स्थानीय भाषा में सतुआनी भी कहा जाता है, स्थानीय सती चौड़ा मंदिर में पंजरभोंकवा मेला लगता है। मान लो कि किसी युवा को पंजरभोंकवा मेला में कुछ सहयोग करने के कारण उनकी महिमा से कोई बड़ी नौकरी लग जाती है, तो क्या उससे प्रभावित होकर अन्य क्षेत्रों के लोग भी यह आयोजन अपने-अपने क्षेत्रों में करवाने लगेंगे।
बहनों मेरी इनमें मौलिक अंतर समझो। लोक देवता अलग हैं, ग्राम देवता अलग हैं, जाति के देवता अलग हैं और पूरे हिन्दू धर्म के पंच महादेव अलग हैं। पूरे हिन्दु धर्म में संपूर्ण विश्व में एक साथ केवल पंच महादेव और इनके अवतार तथा नवग्रहों की ही प्राथमिकता दी गयी है, जिनका बिना किसी विचार के सभी जगहों के लोग पूरे संसार में एक साथ पूजा-अर्चना एवं भक्ति कर सकते हैं। ये पंच महादेव पराब्रह्माण्डीय देव शक्तियाँ हैं। लेकिन क्षेत्र विशेष में कुछ लीला विशेष के कारण देव शक्तियों की महिमा में भी परिवर्तन हो जाता है। जो देवी काशी वाराणसी मंे अन्नपूर्णा एवं विशालाक्षी कहलाती है, वही मदुरै में मीनाक्षी देवी और कुछ जगहों पर मूकाम्बिका कहलाती हैं। धर्म के इन अत्यंत महीन जाल को सूक्ष्म पहलू को बहुत गहरे से समझना होगा।


इस विषय पर मेरे एक आध्यात्मिक मित्र ने मुझसे कुछ सवाल भी किया था, जिसके उत्तर मैंने जो दिया था, वो आपलोगों की जानकारी हेतु यहाँ उल्लेखित कर रहा हूँ, जो कि इस प्रकार हैं:-
 
मदन उवाच (मदन कहते हैं):- क्या यह भी सन्तोसी माता जैसा काल्पनिक व्रत है। फिल्मो का उत्तपन्न किया हुआ।
इसका घार्मिक पहलू बताओ । चौठ चाँद का पूजा होता है बिहार मधुबनी दरभंगा में।

अभिषेक कथनम्:- मुझे इस विषय में विशेष कुछ मालूम नहीं। मैं कभी पंजाब गया नहीं और न उधर के हिन्दुओं के बारे में और उनकी संस्कृति के बारे में कुछ जानता हूँ। मेरा सवाल केवल बिहार और उप्र की महिलाओ से था कि बिना कुछ जाने बुझे फिल्मों के फैशन से प्रभावित होकर व्रत कर रही हैं।
कल को कोई हिमाचल प्रदेश का व्यक्ति हिडिम्बा देवी की भक्ति और महिमा पर पिक्चर बना दे तो क्या उस ग्राम देवी को पूरे भारत में पूजा जाने लगे।
इस विषय में तुम्हारा सारा संशय शायद मेरे लेख को पढ़कर दूर हो जाए जो कि मैं सोमवार को अपने वेबसाइट पर डालूंगा।
मेरा कहना बस यही है कि ग्रामदेवता अलग हैं, कुलदेवता अलग हैं, जाति के देवता अलग हैं और पांच महादेव अलग हैं।
ग्रामदेवताओं को भी राष्ट्रीय देवता न बनाया जाय। इसलिए मैंने सवाल उठाया था।

लेखक :- श्री अभिषेक कुमार, मंत्र, तंत्र, यन्त्र विशेषज्ञ, शक्ति सिद्धांत के व्याख्याता, दस महाविद्याओं के सिद्ध साधक, श्री यन्त्र और दुर्गा सप्तशती के विशेषज्ञ, ज्योतिषाचार्य एवं वास्तुशास्त्री.

Mob:- 9852208378,  9525719407  

मिलने का वर्तमान पता:-
पुष्यमित्र कॉलोनी, संपतचक बाजार
(गोपालपुर थाना और केनरा बैंक के बीच/बगल वाली गली में)
इलेक्ट्रिक पोल नंबर-6 के पास
पोस्ट-सोनागोपालपुर, थाना-गोपालपुर
संपतचक, पटना-7
नोट:-संपतचक बाजार, अगमकुआँ में स्थित शीतला माता के मंदिर से लगभग 8 किमी॰ दक्षिण में स्थित है। नेशनल हाईवे - 30 के दक्षिण में एक रोड गयी है, जो पटना-गया मेन रोड के नाम से जाना जाता है। इस रोड पर ही बैरिया बस स्टैण्ड है। इसी बस स्टैण्ड के दक्षिण संपतचक बाजार स्थित है। यहीं केनरा बैंक के ठीक बगल वाली गली में मेरा मकान है। जहाँ आप सभी धर्मप्रेमी भक्तजन/जिज्ञासु समय लेकर मुझसे कभी भी मिल सकते हैं।

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