Shiv Guru आदि महेश्वर शिव हमारे गुरु है, और मैं उनका शिष्य : एक भ्रम पूर्ण सिद्धांत

Shiv Guruआदि महेश्वर शिव हमारे गुरू हैं, और मैं उनका शिष्य : एक पाखण्ड एवं भ्रमपूर्ण सिद्धांतShiv Guru

(वर्तमान संदर्भ में)




वर्तमान् में एक शिव शिष्य परिवार रूपी धार्मिक संस्था उठ खड़ी हुई है, जो कि गुरू- शिष्य परम्परा का विरोध नये सुर-ताल में कर रही है।
आज हमारा सत्य-सनातन हिन्दू धर्म पुनः एक पीड़ा झेलने को तैयार है, और यह पीड़ा कहीं बाहर से नहीं, बल्कि अपने ही लोग देने को तैयार हैं। इस परिवार के अनुसार वर्तमान में जो भी आध्यात्मिक गुरू हैं, वे सभी मक्कार, झुठे एवं शिष्यों के पैसों पर मौज करने वाले हैं। चलो कुछ हद तक मान लेते हैं, कि यह सही भी हो सकता है, परंतु सब के सब ऐसे ही हों, यह बिल्कुल गलत है। यह एक हताशा पूर्ण विचार है। इस विचार की तुलना हम उस व्यक्ति से कर सकते हैं, जो नौकरी के लिए दर-दर भटके, लेकिन नौकरी नहीं मिलने पर अपने मन को यह कह कर दिलासा देता है,अरे, नौकरी में क्या रखा है, बस कुछ हजार रूपये ही न। इससे तो अच्छा गाँव में पान की दुकान ही है। कम-से-कम चैन की जींदगी तो है, जब मन करेगा दुकान खोलेंगे, नहीं तो दुकान बंद रखेंगे। मित्तल, अंबानी, टाटा या ओबेराय तो बिजनेस करके ही न अरबों में खेल रहे हैं, इत्यादि।
मैं जहाँ तक समझता हूँ, इस परिवार के निर्माता को वास्तव में किसी तंत्रज्ञ गुरू से पाला पड़ा ही न हो या यह व्यक्ति रावण या हिरण्यकश्यपु के समान महान् अभिमानी हो और देवाधिदेव को अपने गर्व की पूर्ति के रूप में इस्तेमाल कर रहा हो।
लोग कहते हैं कि पहले के गुरू बहुत चमत्कारी होते थे, और अब के गुरू तो बस केवल हांकने वाले।
मन का एक स्वभाव है कि यह भूतकाल के सुख-दुःख का विशलेषण करता है और भविष्य के सुखद सपने संजोता है। वर्तमान् की समस्याओं पर ध्यान ही नहीं देता। जिन शिर्डी के साईंबाबा के आज करोड़ों भक्त हैं, उनके प्रतिमा पर दूध, दही, घी टनों उझला जाता है, 22 करोड़ से निर्मित स्वर्ण सिंहासन बनाया जाता है, उन्हीं साईंबाबा को थोड़ा सा तेल मांगने पर एक बनिये ने धक्के दे कर गिरा दिया था। उन्हें मुठ्ठी भर समय से भोजन भी नसीब नहीं था और जीवन तो उनका गुदड़ों में ही बीता।
सिक्खों के दसों गुरूओं ने क्या कम दुःख झेला? जिन भगवान महावीर के मार्ग पर चलकर लोग परम कैवल्य पद प्राप्ति की इच्छा करते हैं, उनको क्या उस समय के लोगों ने कम पीड़ा दी? लोग तो उन पर कुत्ते तक छोड़ देते थे। बुद्ध को जहर रूपी शूकर का मांस तक दिया गया।
एक कहावत है - पानी पीजिए छान के, गुरू कीजिए जान के। इस एक वाक्य में जीवन का गूढ़ तत्व छिपा हुआ है। ऐसा न हो कि गुरू के रूप में हमें कोई गुरू घंटाल मिल जाए।
अब मैं जरा गुरू तत्व की व्याख्या कर दूं। गुरू शब्द दो मातृका अक्षरों के संयोग से बना है - और र’। ‘ग’ अक्षर जहाँ अंधकार का प्रतीक है, वहीं ‘र’ अक्षर अग्नि तत्व का प्रतीक है। और इन दोनों वर्णों में उ’ कार लग कर गुरू शब्द की रचना होती है। \शब्द तीन वर्णों के मेल से बना है – अ, उ तथा म। ‘अ’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का प्रतीक है, तो ‘उ’ पालनकर्ता विष्णु का तथा ‘म’ संहारकर्ता रुद्र का।
इस प्रकार गुरू शब्द का अर्थ हुआ, जो हमें अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चले। अज्ञानता जहाँ मृत्यु का द्योतक है, वहीं ज्ञान जीवन का। हमारे वेदों में भी कहा गया है - असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गम्य। मृत्योर्मा अमृतगम्य।
अर्थात् - हे परमपिता परमेश्वर! हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से जीवन (अमृत प्राप्ति) की ओर ले चलें।
कबीरदास जी भी, जिन्होंने बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत-उपवास, नमाज का कठोर विरोध किया, उन्होंने भी गुरू की महिमा वर्णन् में कोई कसर न छोड़ी। उन्होंने गुरू की महिमा तो ईश्वर से भी बढ़कर कर दी है -
गुरू गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पांव। बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय।।
कबीरदास जी तो यह शीष देकर भी गुरू प्राप्ति करने को महंगा सौदा नहीं कहा है -
यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान। शीष दियो जो गुरू मिलो, तो भी सस्ता जान।।



इस पद की विषेष व्याख्या मैं तांत्रोक्त भाषा में आगे करूंगा। श्री कबीरदास ने गुरू की महिमा का बखान करने में प्रकृति को भी असमर्थ कहा है, देखिये इस पद में -
सब धरती कागज करूं, लेखन सब वन राय। सात समुद्र की मसी करूं, गुरू गुण लिखा न जाय।।
इस भारत भूमि का कण-कण गुरूमय है। यहाँ की प्रत्येक नदी गंगा। राम यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विराजते हैं। सीता का सतीत्व प्रत्येक नारी का आदर्श यहाँ का हर नटखट बालक कन्हैया है और इठलाती बालिका राधिका। मीरा यहाँ के प्रत्येक स्वर कोकिला के कंठ में तो तुलसीदास प्रत्येक विद्वानों के मानस में।
हम भारतवासियों का यह सौभाग्य है कि समय-समय पर ईश्वरीय शक्ति ने यहाँ गुरू के रूप में अवतार लेकर भारत भूमि की यहाँ के धर्म की रक्षा की है। यह हम भारत वासियों के लिए गर्व की बात है कि हम किसी के नाजायज संतान को एकमात्र ईश्वर पुत्र न मानकर कण-कण में भगवान को देखते हैं। हमारे लिए मिट्टी भी त्याज्य नहीं, और पर्वत भी पूज्य।
प्राचीन भारत में एक गाली दी जाती थी – निगुरा’, अर्थात् गुरूहीन या बिना गुरू का। वर्तमान् में जो महिलायें गाली देती हैं - निगोड़ा या निगोड़ी, इस निगुरा शब्द का ही अपभ्रंशात्मक रूप है।
पहले के समय में निगुरा शब्द किसी को कह देने पर वह बहुत बुरा मानता था और मरने-मारने पर तक उतारू हो जाता था।
उस बच्चे की दुर्दशा देखिये जो अनाथ है। माता-पिता जिसके मर चुके हैं, और कोई अभिभावक भी नहीं। हर कोई उसे ताना देता है, और कुत्ते जैसा व्यवहार करता है। गली के कुत्ते को तो देखिए, जिसका कोई मालिक नहीं। जो भी आता है, उसे ढेला मारता है, लात मार कर जाता है। बस यही बात हमारे आध्यात्मिक जीवन में भी है। धर्म मनुष्य का प्राण है। संसार के प्रत्येक सभ्यता में धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं होता, अर्थात् आध्यात्मिक जगत में वह अनाथ है, उसे समस्त दैविक या आसुरी शक्तियाँ या प्राकृतिक शक्तियाँ अपना ग्रास बनाने को चल पड़ती हैं। अरे देखो, इस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं, यह गुरू कवच हीन है। गुरू नहीं तो इष्टदेव क्या प्राप्त होंगे, चलो इसका भक्षण करें। ग्रह, देव, भूत-प्रेत, इतर योनियाँ, अधर्म, यम सभी उस जीव को ग्रसने चलते हैं। यह मानव देह सभी के आकर्षण का केंद्र है। सभी कर्म इसी पर संपादित होते हैं। ज्योतिष शास्त्र तो केवल नौ ग्रहों तक ही सीमित है, पर तंत्र शास्त्र अनेक ग्रहों की व्याख्या करता है - भूत ग्रह, प्रेत ग्रह, देव ग्रह, राक्षस ग्रह, सौर ग्रह, नक्षत्र ग्रह, शक्ति ग्रह, रूद्र ग्रह, भैरव ग्रह इत्यादि। ग्रह कौन, जो दूसरे को ग्रस ले, वह ग्रह है। और जैसे ही व्यक्ति किसी उच्च कोटि के तंत्रमार्गी गुरू से दीक्षित होता है, समस्त नकारात्मक शक्तियाँ भाग खड़ी होती हैं। जो कल तक उसके शत्रु बने थे, वही मित्र हो जाता है, सहायक बन जाता है। और यह सब चमत्कार होता है, प्रबल गुरू शक्ति के कारण। कल तक जो दैत्य समाज उपेक्षित था, आज वही शिव का रावण के गुरू के बन जाने के कारण त्रिलोक विजेता हो गए।
इस समय विश्व के तीन सबसे बड़े विश्वविद्यालय हैं - अमेरिका का शिकागो में हॉबर्ड यूनिवर्सिटी तथा लंदन का ऑक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रीज। इन तीनों से जो विद्यार्थी निकलते हैं, उन्हें एक बार नोबेल या समकक्ष पुरस्कार अवश्य प्राप्त होते हैं। प्रत्येक उच्च कोटि के विद्यार्थी की अवश्य इच्छा होती है, इन विश्वविद्यालयों में एक बार किसी प्रकार दाखिला मिल जाए। पर कितने विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जिनका दाखिला इनमें होता है। इनकी छोड़िये, अपने राज्य के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में या स्कूल तक में तो अधिकतर विद्यार्थियों का दाखिला नहीं हो पाता। जब मानव द्वारा निर्मित संस्था में सभी का प्रवेश संभव नहीं, योग्यता का उचित मापदंड पूरा न कर सकने की स्थिति में प्रवेश बंद है तो क्या वास्तविक आध्यात्म की दुनिया में बिना कोई उचित गुरू के मार्गदर्षन के अभाव में प्रवेश मिल सकेगा? जब बच्चा पढ़ने के लिए बैठता है, तो शिक्षक उसे हाथ पकड़कर लिखने-पढ़ने के लिए सिखाता है। बच्चा बार-बार गलतियाँ करता है और शिक्षक उन गलतियों को सुधारते हैं। बाजार में तो अनेक पुस्तकें हैं, लेकिन क्यों किसी शिक्षक या प्रोफेसर द्वारा व्याख्या की आवष्यक्ता पड़ती है।
जब सांसारिक ज्ञान प्राप्ति में यह हालत है, बार-बार नाव डगमगाती है, तो भला उस अलौकिक ज्ञान में क्या हालत होगी, जिसे प्रारम्भिक अवस्था में तो न आंखें देख पाती हैं, और न कान ही सुन सकते हैं। केवल सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास करके आगे बढ़ा जाता है। पानी दिख भी नहीं रहा और नाव भी उतारनी पड़ती है। यह निश्चित जान लो कि इस शरीर को शिक्षा एक शरीर रूपधारी गुरू ही दे सकता है।
और क्या शिव तक पहुंचना इतना ही आसान है, जरा अपने धर्मग्रंथ तो खोलकर देखें। परशुराम को तो गणेश से युद्ध करना पड़ा। गणेश का एक दांत खण्डित हो जाने पर उन्हें माता शक्ति का प्रकोप भी झेलना पड़ा, तब कहीं जाकर भोलेनाथ आए। रावण को नंदी से युद्ध करना पड़ा, कैलाश को उठाना पड़ा, शिव ताण्डव स्तोत्र की रचना की, तब कहीं जाकर भगवान शिव के दर्शन हुए। दस बार सिर काटकर अग्निकुण्ड में समर्पित किया, तब कहीं जाकर भोलेनाथ का आत्मलिंग प्राप्त कर सकने में सफल हुआ। लेकिन फिर भी वह लंका ले जाने में सफल नहीं हो पाया। तो क्या आपमें रावण या परशुराम जैसा पराक्रम या तेजस्विता है, जो चले हैं, शिव को गुरू बनाने।


ब्रह्मा जी भी सृष्टि के प्रारंभ में हतप्रभ हो रहे थे, कि किस प्रकार सृष्टि की रचना संपन्न करूं? उन्होंने शिव से सहायता मांगी। शिव ने अपना अनंत स्वरूप प्रकट कर दिया। ब्रह्मा जी और भी आष्चर्य में पड़ गए, भला शिव के किस स्वरूप को ले कर सृष्टि की रचना संपन्न करूं। ये तो अनंत है। तभी शिव में से प्रकट शिवा बोल उठी – हे ब्रह्मा! तु शिव के चक्कर में मत पड़े। ये अनंत हैं, तुझे जितना जरूरत है, उतना ही ले।“




ब्रह्मा जी ने शक्ति की आज्ञा शिरोधार्य कर उनमें से उनकी शक्ति शिवा को प्राप्त कर मैथुनी सृष्टि की रचना प्रारम्भ की। जब ब्रह्मा जी का यह हाल है, तो अन्य की बात ही क्या? और आप कितने पानी में हैं, जो चले हैं, शिव को गुरू बनाने। और एक सवाल पूछता हूँ, कि क्या शिव आज ही आए हैं, जो उनको चले हैं, गुरू बनाने। क्या वे राम, कृष्ण या शंकराचार्य के समय में नहीं थे, जो भगवान राम ने वषिष्ठ ऋषि को गुरू बनाया। राम जी के तीन गुरू हुए – वशिष्ठ, विश्वामित्र और अगस्त्य ऋषि। परमयोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सांदिपनी मुनि से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। और तो और साक्षात् रूद्रावतार हनुमान जी ने भी सूर्य वंश के एक प्रमुख सूर्य उपासक ब्राह्मण से ही ज्ञान प्राप्त किया था, न कि शिव से। देवताओं के गुरू बृहस्पति हुए और दैत्यों के शुक्राचार्य। संपूर्ण भारत वर्ष से बौद्ध धर्म का उन्मूलन कर देने वाले शंकराचार्य जी, जिन्हें  साक्षात् शंकर का अवतार माना जाता है, ने भी गौड़पादजी जी से दीक्षा ग्रहण की थी। जब ये सभी महानुभाव किसी शरीरधारी व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, तो आप खुद को कहाँ तौलते हैं?
जब-जब इस राष्ट्र पर संकट आया, तब-तब किसी गुरूशक्ति ने ही राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा की। मैं मानता हूँ कि सभ्यता के विकास काल में शिव प्रथम गुरू हुए। उन्होंने ही निगम को आगम बनाया। तंत्र शास्त्र की रचना की। नटराज बन नृत्य कला का विकास किया तो नाद ब्रह्म की भी रचना की। हजार श्लोंको वाला कामशास्त्र की भी रचना की तो परममोक्ष की प्राप्ति हेतु उच्च समाधि अवस्था का भी निर्माण किया। भारत भूमि की प्यासी धरती को स्वर्ग से गंगा भी लाकर दिया। घोर हलाहल भी पी गए तो छः हाथों से अमृत भी प्रदान किया। तो क्या अब जब आप बीमार पड़ते हैं, तो आयुर्वेद के जनक धनवन्तरी को या होम्योपैथ के आविष्कारक सैमुएल हैनमेन के पास जाते हैं या निकट के किसी डॉक्टर के पास। जब शिव रूद्र रूप में इस धरती पर सशरीर विराजमान थे, तो उन्होंने हमेशा इस धरती की रक्षा की और वे अब किसी-न-किसी गुरू या महायोगी के रूप में बार-बार अवतरित हो रहे हैं।


‘कृष्णं वन्दे जगदगुरू’ सारे संसार को कर्मयोग की शिक्षा किसने दी। भगवान श्री कृष्ण ने। जब संपूर्ण भारत युद्ध की विभिषिका में जल रहा था तो सत्य-अहिंसा का पाठ किसने पढ़ाया - भगवान बुद्ध ने। परम कैवल्य पद का सिद्धांत भगवान महावीर ने दिया। तो वहीं जब सारे भारतवर्ष में वैदिक परम्परा का विरोध हो रहा था, बुद्ध के पावन संदेशो को तोड़-मरोड़कर नव बौद्ध मतावलम्बी प्रस्तुत कर रहे थे, तो संपूर्ण भारतवर्ष से बौद्ध धर्म का उन्मूलन किसने किया - आदि शंकराचार्य ने, और उन्होंने भारत के प्रत्येक दिशाओं में वैदिक धर्म के पालन एवं गुरू परम्परा के निर्वहन हेतु मठों की स्थापना की। और ये शंकराचार्य जी भी ने सबसे पहले किसी मानव को ही गुरू बनाया। अगर ये शंकराचार्य जी न होते तो ये नये-नये शिव के शिष्य बुद्ध शिष्य परिवार की रचना कर रहे होते।
महान राम भक्त गोस्वामि तुलसीदास जी ने भी श्री हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए, उन्हें गुरू की तरह कृपा करने को कहा है, न कि किसी शिव, विष्णु, ब्रह्मा या इन्द्र की तरह।
जै जै जै हनुमान गुसाईं, कृपा करहु गुरूदेव की नाई।
ब्रह्मा सृष्टि कर देंगे, विष्णु शस्त्र ले उपस्थित हो जायेंगे आसुरी शक्तियों से रक्षा हेतु, लक्ष्मी प्रदान कर देंगे, इन्द्र वर्षा कर देंगे, रूद्र संहार कर देंगे, तो शिव समस्त शक्तियों की अनुभूति करा देंगे, वहीं दुर्गा दुष्टों का मर्दन कर देगी। पर ये सभी शक्तियाँ एकांगी हैं। तो वह कौन-सी शक्ति है, जिसमें ये सभी तत्व मौजूद हों। तो वह शक्ति है - गुरू की शक्ति, जो ब्रह्मा की तरह सृजन करे, विष्णु की तरह पालन करे और रूद्र की तरह अज्ञानता का संहार करे।
और इसलिए गुरू के संबंध में कहा गया है - गुरू कृपा ही केवलम्, अथवा ध्यानमूलं गुरू, मोक्षमूलं गुरू। भारत के सामाजिक एवं धार्मिक समरसता के निर्माण में क्या सिक्ख गुरूओं के योगदान को कम करके आंका जा सकता है? कदापि नहीं। जिस समय हिन्दु-मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी, तथाकथित कर्मकाण्ड एवं अंधविश्वास फैलता जा रहा था, मुगल साम्राज्य निर्माता हिंदुओ पर कहर ढा रहे थे, उस समय गुरू नानक देव सब के बीच आशा की किरण बनकर आए। हिन्दु समाज विभिन्न देववाद एवं जाति प्रथा में लिप्त था, उन्होंने ‘एक ओंकार सत्य नाम’ का महामंत्र प्रदान किया। जाति को जाति से, समाज को समाज से जोड़ा। समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग को भी अपना शिष्य बनाकर गुरू परम्परा में शामिल किया। एक अमीर जमींदार के यहाँ भोजन न कर उस लोहार के यहाँ रोटी खायी जो अपने परिश्रम के बल पर कमाता था। धन्य है सद्गुरू की महिमा।


गुरू अंगद देव जी ने जो लंगर की प्रथा चलाई, उसने बहुत हद तक ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, हिन्दु-मुसलमान, ब्राह्मण-शुद्र तथा छुआछुत की भावना मिटा दी। अब केवल सब गुरू के शिष्य थे। जो भी गुरू के दरबार में जाता, लंगर में भोजन कर के ही जाता। खुद अकबर ने भी लंगर में भोजन करने के बाद ही गुरू अमरदास  जी से मुलाकात की थी। क्या धर्म की रक्षा हेतु गुरू अर्जुनदेव जी महाराज की शहादत को भुलाया जा सकता है? जब परमेश्वर द्वारा रचित वेद को पढ़ने से शूद्रों को मना किया जा रहा था, तब गुरू अर्जुनदेव जी महाराज ने आदि गुरू नानक देव तथा अन्य सभी धर्मों के संतों की वाणि को एकत्र कर श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश किया। सत्य सनातन धर्म की महिमा की रक्षा हेतु उन्होंने जहाँगीर के सामने गर्म लोहे के तावे पर भी बैठने से भी इंकार न किया। हंसते-हंसते अपने प्राणों की बली दी, लेकिन इस्लाम एवं अन्यायी शासक की सत्ता को स्वीकार न किया।
कश्मीरी पंडितों की रक्षा हेतु गुरू तेगबहादुर जी ने अपनी गर्भवती स्त्री को छोड़ कर असम की ओर प्रयाण किया। धर्म की शान न जाए, इसलिए सिर भी कटवा लिया। और तो और हिन्दुत्व की रक्षा हेतु खालसा पंथ की स्थापना भी एक मनुष्य गुरू ने ही की थी। गुरू गोविंद सिंह जी का स्पष्ट कथन था कि हिन्दुओं के तिलक एवं जनेऊ की रक्षा हेतु मैंने तलवार उठायी है, खालसा पंथ की स्थापना की है।
धर्म चलावन, संत उबारन, दुष्ट संहारन।
वर देहि षिवा मोहि एहि, शुभ कर्मण ते कबहुं न टरूं।
बोले सो निहाल, सत् श्री आकाल |”

धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने अपने पिता को बलिदान कर दिया और चार-चार जवान पुत्रों को भी कुर्बान कर दिया। लेकिन अत्याचारी मुगल साम्राज्य के आगे सिर नहीं झुकाया। और अगर गुरू गोविंद सिंह जी न होते तो हम सभी हिन्दु (सनातन मतावलम्बी) अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो गए होते, सभी का सुन्नत हो जाता और काशी जाने के बजाय, काबे जा रहे होते।
उस समय कहाँ थे, धर्म की रक्षा हेतु शिव या उनके गण? एक बात जान लो, न ही उस समय शिव आए और न ही अब के समय में गुरू गोविंद सिंह जी महाराज आने वाले हैं। सब का अपना समय होता है। अब हम में से ही किसी एक को समाज के दिए हलाहल विष को पीना होगा, और धर्म की रक्षा करने को आगे आना होगा।


भगवान शिव के नाम पर यह मतिभ्रम और गुरू परम्परा का विरोध अब और नहीं चलने दिया जाएगा।
इसी तरह का वितण्डावाद एक समय और फैला था - महमूद गजनवी के आक्रमण के समय 11 वीं शताब्दी में। इतिहासज्ञ कहते हैं कि जब गजनवी शहर को लूटता हुआ, सोमनाथ की तरफ बढ़ रहा था, तो उसके रक्षक सैनिक तलवार उठाने के बजाय भजन-कीर्तन में तल्लीन थे। गजनवी का मुकाबला करने के बजाय वे शिव को पुकार रहे थे। सब कोई सोमनाथ शिवलिंग के आस-पास खड़े थे इस कल्पना में कि अब शिवलिंग में से देवाधिदेव प्रकट होंगे, हाथ में त्रिशुल लेंगे और एक हुंकार मात्र से ही सभी आक्रमणकारियों को भस्म कर देंगे और जो होना था वही हुआ। गजनवी और उसके सैनिक बड़े आराम से शहर को रौंदते हुए मंदिर में घुस आए। सभी को गाजर-मूली की तरह काट दिया और बिना कोई विरोध के मंदिर को लूट के चलते बना।
देवाधिदेव भी कैलाश में बैठे अपने अनुयायियों की इस मूर्खता को देख रो उठे होंगे। अरे जब हाथ-पाँव सही सलामत दिया तो तलवार क्यों नहीं उठाया। मैंने भी तो त्रिशुल उठाया, अपने पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश को युद्ध करना सिखाया। अगर उस समय भी कोई छत्रपति शिवा जी के महान गुरू समर्थ रामदास जी जैसे गुरू होते तो उनके प्रताप से सोमनाथ मंदिर लूटा न जाता और इसी तरह का वितण्डावाद अब चल पड़ा है, वर्तमान में गुरूओं का अपमान करने को। आजादी की लड़ाई में आर्य समाज के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। सारे भारत को एक सूत्र में पिरो देने का जो कार्य दयानंद सरस्वती ने किया था, वह किसी बड़े-बड़े राजनेता से संभव नहीं था। लौटो वेदों की ओर” - यही उनका नारा था। समाज की तमाम कुरीतियों को आर्य समाज ने समाप्त करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए। उनके ही प्रयास से हिन्दुओं का एक बड़ा समूह धर्म परिवर्तन करने से बच गया।
पष्चिम में भारत के धर्म एवं दर्शन का परचम फहराने वाले स्वामी विवेकानंद के गुरू भी तो एक साधारण मनुष्य ही थे, न कि कोई अवतारी या साक्षात् शिव । गरीब भारत में पष्चिम की पूंजी के निवेश की परिकल्पना सर्वप्रथम विवेकानंद ने ही की थी। उन्होंने शिकागो के धर्मसम्मेलन में स्पष्ट रूप से कहा था – पष्चिम का विज्ञान और पूर्व (भारत) के ज्ञान को साथ मिलाकर चलने से ही विश्व में प्रगति हो सकती है।“ आज जो आर्थिक उदारीकरण चल रही है, उसके प्रथम सूत्रधार विवेकानंद जी ही थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था - मैं जगन्माता (काली जी) को जानता हूँ, केवल अपने गुरू के कारण।

धर्म एवं समाज के उत्थान में गायत्री परिवार के संस्थापक पं0 श्री राम शर्मा आचार्य जी के गुरू पं0 मदन मोहन मालवीय थे, जो कि काशी हिंदु विश्वविद्यालय के संस्थापक थे। जो काम तथाकथित अवतारियों ने नहीं किया, वह कार्य आचार्य जी ने कर दिया। वेदों का दिव्य संदेश जन-जन तक गाँव-गाँव में फैल गया। भूत-प्रेत और ग्राम देवताओं तक सीमित रहने वाले लोग भी परम ब्रह्माण्डीय शक्ति को अनुभूत करने लगे। गायत्री पर जो किसी खास वर्ग का अधिकार था, वह जन-जन की माता बनी। अनेक निगुरों को शिष्यत्व प्रदान कर उन्होंने मुक्ति का मार्ग दिखाया। तामसिकता छोड़ लोगों ने सात्विकता अपनायी। जो लोग सिगरेट और शराब में अपना जिंदगी बर्बाद कर रहे थे, अंग्रेजों के कुत्सित प्रयास के कारण भारत के धर्म एवं संस्कृति को गाली दे रहे थे, आचार्य जी के प्रयास के कारण वे लोग अब प्रतिदिन हवन करने लगे और वेदों का पाठ करने लगे। मनुष्य को मनुष्य के निकट ला दिया आचार्य जी ने।
देवराहा बाबा की सिद्धियों को भला कौन नहीं जानता? वे तो साक्षात् शिव स्वरूप ही थे। एक गंगा को भोलेनाथ ने अपने जटा-जूट में संभाला तो देवराहा बाबा ने गंगा की विनाशकारी बाढ़ लाती लहरों को अपने मचान के नीचे ही स्तम्भित कर दिया। हिंसक से हिंसक प्राणी भी उनकी शरण में आकर परम अहिंसक हो जाता था। धन्य है परम गुरूदेव, सद्गुरूदेव देवराहा बाबा की महिमा।

एक बात मैं पुछूं शिव और गुरू में फर्क ही क्या है? शास्त्रों में तो यह भी कहा गया है – “शिवे रुष्टौ गुरू त्राता, गुरू रुष्टौ न कष्चन्।“
अब शिव क्या है, मैं बताता हूँ। माया-मोह रूपी तीन आवरणों से युक्त शिव ही जीव है और यह आवरण जब हट जाए, तो प्रत्येक जीव शिव हो जाता है।
वर्तमान समय में संत सम्राट आसाराम बापू एवं महान् मानस मर्मज्ञ श्री मोरारी बापू तथा इनके जैसे अन्य संत-महात्मा जन-जन तक परमात्मा का दिव्य संदेश प्रसारित कर रहे हैं, क्या यह कम है। आज सारी दुनिया में भारत के दिव्य ज्ञान का संदेश फैल रहा है। उपनिषदों के ज्ञान को सारा विश्व नमन कर रहा है, तो गीता के कर्मयोग के सिद्धांत को भी पष्चिमी देषों के विलासी समुदाय अपना रहा है। यह सब किनके प्रयासों से, निष्चित ही ऐसे महान् संतों के योगदान से। आज विदेशों की भूमि पर कृष्ण मंदिरों का निर्माण हो रहा है, लोग क्रिसमस की तरह जनमाष्टमी भी मनाते हैं, तो इस्कॉन के संस्थापक श्रीलप्रभुपाद के कारण ही।
तंत्र-मंत्र एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भला मेरे परमपूज्य गुरूदेव श्री निखिलेश्वरानंद जी के दिव्य योगदान को कौन भुल सकता है। भगवान बुद्ध की तरह उन्होंने भी गृह त्याग कर दिया था। केवल इसलिए कि भारत की लुप्त होती तंत्र विद्या एवं ज्ञान को जीवित रख सकें। प्राचीन विद्याओं को प्राप्त करने के लिए कौन से कष्ट नहीं झेले गुरूजी ने, किस साधु-संत की सेवा नहीं की।
वे कहते थे – मेरी तो तकदीर विधाता ने लोहे के कलम से लिखी है, पर तुम शिष्यों की तकदीर मैं सोने के कलम से लिखुंगा |” आज उन्हीं तंत्रेष्वर के कारण सामान्य से सामान्य मनुष्य भी महाविद्याओं की साधना कर रहा है और अनुभूत भी कर रहा है। मेरे जैसे तुच्छ साधक पर भी गुरू जी शरीर त्यागने पर भी कृपा कर रहे हैं और अत्यंत प्रचण्डकारी नरसिंह दीक्षा भी स्वप्न में संपन्न हो रही है। सौर विज्ञान में भी गुरू जी को महारथ थी। गेंदे के फूल को गुलाब में बदल देना या सेव को केले में बदल देना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। आज तंत्र, मंत्र, यंत्र या ज्योतिष का कोई भी विद्यार्थी या गुरू हो उनकी लिखी किताबों को अवश्य पढ़ता है।

1962 में भारत-चीन युद्ध के समय जब चीन लगातार बढ़ा ही चला आ रहा था और भारतीय सेना बार-बार मात खा रही थी, उस समय दतिया पीठ के संस्थापक राष्ट्रगुरू श्री वनखण्डेश्वर जी महाराज ने राष्ट्र रक्षा यज्ञ किया, जिसके लिए भगवती ने उन्हें अपना ग्रास भी बनाया। वे इस युग के साक्षात् दधिची ऋषि थे। जब राजनेताओं की सारी कूटनीति विफल हो गयी, तो वे धर्म की शरण में गए। यह आजादी हमें बहुत मुष्किल से मिली है, इसकी रक्षा करनी ही होगी- कह उठे राष्ट्रगुरू वनखण्डेश्वर जी महाराज।

राष्ट्रकवि दिनकर’ ने भी पंचशील समझौते के विरोध में लिखा था -
और उड़ाये हैं, इसने उज्जवल कपोत जो, उसके भीतर छिपी हुई बारूद है।‘
महाविद्याओं में अति प्रचण्ड धूमावतीअनुष्ठान् प्रारम्भ हुआ, जिसके लिए अरूणाचल प्रदेश के किसी गुप्त स्थान से अति प्राचीन धूमावती विग्रह लाया गया। यज्ञ शुरू होते ही चीन की सेना पीछे हटने लगी। भारतीय सेना को अपनी चौकियों पर कब्जा होते गया और ठीक पूर्णाहुति के दिन चीन ने बिना कोई शर्त के अपनी सेना को वापस बुला लिया। और आज भी जब भारत का कोई युद्ध हो, वहाँ (दतिया में) राष्ट्र रक्षा यज्ञ प्रारम्भ हो जाता है, और भारत को लगातार विजय प्राप्त होती है। इस अनुष्ठान् के बाद वनखण्डेश्वर जी महाराज को राष्ट्रगुरू की उपाधि से विभूषित किया गया। अगर आज राष्ट्रगुरू न होते तो भारत की राजनीतिक, भौगोलिक सीमा शायद और ही कुछ होती।
भगवती काली की भक्ति के प्रचार-प्रसार में पटना के सुविख्यात् गुरूदेव श्री बलराम सिंह जी का क्रांतिकारी योगदान भला कौन भूल सकता है। बिना कोई प्रचार-प्रसार के, बिना ताम-झाम के काली के नाम मात्र से घबड़ा जाने वाले लोगों को, उन्होंने जन-जन की माता बना दिया। यह गुरूदेव जी का ही प्रयास था, कि लोगों के मन से उन्होनें काली के नाम पर फैले भय को मिटाया।

काली को तो लोगों ने केवल खून पीने वाली देवी समझ रखा था। लोगों के मन में यह भ्रम था कि अगर किसी पेशेवर ब्राह्मण के बिना इनकी पूजा की जाए तो केवल अनिष्ट ही होगा। उस समय गुरू जी ने यह कहकर भक्तों के मन के भय को मिटाया – भगवती की पूजा में जो कुछ भला होगा, सब आपका और जो भी बुरा होगा, उसे मैं स्वीकार करता हूँ।‘

लोगों के मन से भय मिटा और ईश्वर एवं भक्तों के बीच किसी तीसरे की जरूरत न रही। मुझे याद है कि जब प्रथम बार काली की साधना करने की मैंने ठानी, तो भगवती के भयंकर स्वरूप से मन घबड़ा रहा था, तो उस समय श्री गुरूदेव जी के इसी वाक्य ने मुझे राहत दी। और आज मैं घंटों बड़ी-बड़ी महाविद्या साधना बिना कोई भय के संपन्न करता हूँ। ऐसे क्रांतिकारी महागुरू के चरणों में बारम्बार नमन, जिन्होंने राजनेताओं की तरह कोई भाषण न दिया और अनंत काल से चले आ रहे, पुरोहितवाद का बहुत हद तक खात्मा किया।
अब मैं इस संस्था द्वारा दिए जाने वाले मंत्र की चर्चा करता हूँ। यह शिव षिष्य परिवार नमः शिवाय’ मंत्र प्रदान करता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि शक्ति के बिना शिव भी शव हैं। शिव में से शक्ति का प्रतीक हटा देने पर वह शव हो जाता है। प्रलयकाल का दृश्य देखो कि शिव शव बन गए हैं और शक्ति उनके ऊपर काली के रूप में खड़ी है, अत्यंत भयंकर तरीके से क्रूर रूप से अट्टहास कर रही हैं और महाविनाश चल रहा है। इन्होंने प्रचलित रूप से मंत्र से ॐ’ भी हटा दिया है। ऐसा कर उन्होंने भगवान श्री कृष्ण एवं गुरू नानक देव जी को भी चुनौती दे दी। अर्जुन के विभिन्न मंत्रों के बारे में पूछने पर श्रीकृष्ण ने केवल उन्हें ‘ॐ’ का जप करने को बताया। इसी में सृष्टि का सारा तत्व निहित है। यह नाद ब्रह्म है। गुरू नानक देव जी ने भी कहा था – एक ओंकार सत् नाम’।

‘ॐ’ महाप्रणव है। यह प्रतीक है विध्नहर्त्ता, मंगलकर्त्ता आदिगणेश का। जहाँ गणेश होंगे, वहाँ शुभ ही शुभ होगा, मंगल ही मंगल होगा। प्रथम पूजा लेने के अधिकारी हैं, श्री गणेश। शिव के गणों में तो भूत-प्रेत और वेताल भी शामिल हैं। शिवलिंग का पूजन मुख्य रूप से जनन का महाविज्ञान है। इससे कुछ भी उत्पन्न हो सकता है - शनि जैसा क्रूर ग्रह तो हनुमान जैसे परम उद्धारक भी। रावण तो राम भी] इसी शिव उपासना के माध्यम से आए हैं। महाविनाशकारी काली भी इसी शिवलिंग से प्रकट होती है, तो भगवती अन्नपूर्णा भी। इसलिए शिवलिंग के पास श्री गणेsश की स्थापना की जाती है, शुभत्व के निर्माण हेतु।
और आप महागणपति के प्रतीक ‘ॐ’
को ही हटा रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आप गणपति की शक्ति को पार कर गए हैं और अब आपको गणपति की आवश्यकता नहीं रही।
रामचरितमानस में गोस्वामि तुलसीदास ने भी शिव विवाह प्रसंग में यह उल्लेख किया है कि विवाह के अवसर पर शिव-पार्वती ने भी महागणपति का पूजन किया। एक बात जान लें कि श्री गणेश केवल शिव-पार्वती के पुत्र नहीं, बल्कि उन्होंने अवतार ग्रहण किया। सृष्टि से पहले भी उनकी स्थिति थी। यह एक अति रहस्यात्मक बात है। कभी गणपति पर लिखुंगा तो स्पष्ट करूंगा।
यह मैं जानता हूँ कि केवल नमः शिवाय मंत्र से भी उपासना संपन्न होती है, और भगवान विष्णु ने एक बार ऐसा ही किया। पर यह पूर्णतः तांत्रोक्त प्रयोग है। अर्थात् जब गणेश की आवश्यकता न रहे, केवल परब्रह्म शिव ही चाहिए। वास्तव में नमः शिवाय’ या \ नमः शिवाय’ मंत्र संन्यासियों के लिए है, जिन्हें केवल शिव ही चाहिए और कुछ नहीं। तो गृहस्थों के लिए कौन-सा मंत्र है, यह मैं आगे स्पष्ट करता हूँ। गृहस्थों की अपनी समस्यायें होती है। शिव का अर्थ होता है, कल्याणकारी। पर शिव केवल शक्ति के साथ ही कल्याणकारी होते हैं। वेदों में तो उन्हें रूद्र कहा गया है, अर्थात् महाक्रोधी। शिव-शंकर तो भगवती पार्वती से विवाह करने के उपरांत बने। शिव के तेज को केवल शक्ति ही झेल सकती है। सती दाह के पष्चात् जब शक्ति शिव से अलग हुई तो क्या शिव कल्याणकारी थे, कतई नहीं। उन्हें समाधि अवस्था में देख तारकासुर जैसा महादैत्य भी उत्पन्न हो गया। जिस माध्यम से सृष्टि में समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है, उस कामदेव का भी उन्होंने विनाश कर दिया। जब बाद में भगवती पार्वती के साथ उनका विवाह हुआ तो वे जगत के लिए पुनः कल्याणकारी हो गए। शिव-शक्ति के संयोग से कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई और तारकासुर का वध हुआ। अतः गृहस्थों के लिए परम कल्याणकारी मंत्र है – “ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं”

ह्रीं - अर्थात् माया बीज। जगदम्बा का, देवी भुवनेश्वरी का मूल मंत्र। शिव को शक्ति ही संभालती है। लोग गुरूदेव जी से पूछते थे कि वह कौन-सा मंत्र है, जिससे एक साथ गणेश, शिव एवं जगदम्बा सभी की उपासना हो जाए तो वह मंत्र है “ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं”।
स्फटिक का श्रीयंत्र स्थापित करो, उसके सामने स्फटिक का शिवलिंग एवं उनके दायें स्फटिक के श्री गणेश जी और हो गया संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण और कर लो जो भी पूजा करनी है, जो भी मांगना है, मांग लो सीधे ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च बिंदु से।


नर्मदा नदी में प्राकृतिक रूप से निर्मित शिवलिंग पाए जाते हैं, जिन्हें नर्मदेश्वर कहा जाता है। इस इस शिवलिंग को बिना योनी पीठ के रख के पूजा कर लो तो जानूं। जब स्थूल रूप से आप जगदम्बा के प्रतीक योनि के बिना शिव को संभाल नहीं, सीधा खड़ा नहीं रख सकते तो फिर सूक्ष्म रूप से मंत्र को कैसे जगदम्बा के बिना संभालोगे। जो भगवान शिव सारे संसार को कुछ-न-कुछ प्रदान करते हैं, मनचाहा वर देते हैं, औघड़दानी कहे जाते हैं, वे भी भगवति महात्रिपुर सुन्दरी के आगे भिक्षा मांगते हैं, और जगदम्बा भगवती अन्नपूर्णा के रूप में उन्हें सहर्ष भिक्षा प्रदान करती हैं।


शिव समेत समस्त जगत में चेतना का संचार करती हैं, शक्ति। विशुद्ध रूप से शिव द्वारा निर्मित अयोनिज नवनाथ शिव के इर्द-गिर्द ध्यानावस्था में बैठे थे। ऐसे तो हो चुका जगत् का कल्याण - कह उठी जगदम्बा। बस माया रच दी और गोरखनाथ के अलावा बेड़ा गर्क हुआ सबका। मत्स्येन्द्रनाथ त्रिया चरित्र में उलझ गए, जालंधरनाथ को नौकर बनना पड़ा तो कनीफानाथ को हाथ-पांव भी कटवाने पड़े। इसी प्रकार अन्य नाथों की भी दुर्गति हुई, सभी माया चक्र में उलझ कर रह गए| एक गोरखनाथ ही पक्के निकले, जिन्होंने माया बीज की अधिष्ठात्री को पहचान लिया। शक्ति को भोग्या नहीं माता माना और जगदम्बा की कृपा दृष्टि प्राप्त हुई। राह में पड़ी हुई नग्न स्त्री के रूप में माता जगदम्बा को पहचान लिया, उन्हें श्रद्धा से नमन किया और उनके नग्न शरीर को विल्वपत्र से आच्छादित कर दिया। उसी दिन से भगवती को भी बेलपत्र चढ़ने लगा। एक बात जान लो, गणेश की उपेक्षा कर, शक्ति को ध्याये बिना शिव को प्राप्त करने चलोगे, दुःख ही दुःख मिलेगा।
शिव तो बस शक्ति के खिलौना हैं। शक्ति केवल खेलती है, तो शिव से। जब वे महाकाली बनी तो शिव ने भी महाकाल बन मुण्डमाला धारण कर ही लिया। दक्षिण काली हुई तो अघोर शिव हुए। पार्वती बनी तो महेश्वर हुए। बगलामुखी हुई तो त्रयम्बकेश्वर हुए। आदि शक्ति कमला बनी तो महामृत्युंजय सदाशिव हो गए, जगदम्बा ने तारा का रूप धारण किया तो, देवाधिदेव भी अक्षोभ्य शिव बनकर देवी तारा के मस्तष्क पर विराजमान हो गए, इत्यादि।



शंकराचार्य जी अद्वैत वाद के प्रचारक थे, अर्थात् इस संसार में एकमात्र ब्रह्म ही है, और कुछ नहीं। सगुणोपासना सामान्यलोगों के लिए है, संन्यासियों के लिए नहीं। शक्ति सदा शिव के अधीन रहती हैं। बस कुछ इसी तरह का विचार था, उनका। जगदम्बा रूष्ट हो जाए तो कोई बात नहीं, पर शिव का साथ रहना चाहिए। बस महामाया ने माया रच दी। बनारस के मणिकर्णिका घाट के रास्ते में आद्या शक्ति ने माया रच दी।
शंकराचार्य जी सुबह-सुबह गंगा स्नान करने के लिए जा रहे थे। देखा कि एक नवयुवती विधवा का वेश बनाए बीच रास्ते में विलाप कर रही है और एक लाश उसकी गोद में पड़ा है। चूड़ियाँ उसने तोड़ दी हैं और मांग का सिंदूर भी पोछ दिया है। हाय मेरा पति चला गया है। अब मैं जीकर क्या करूंगी? अरे कोई इसकी अंत्येष्टि के लिए तो आए- ऐसा कहकर वो नवयौवना विलाप कर रही थी। वस्त्रों एवं आभूषण से ऐसा लगा रहा था कि कुछ दिन पहले ही इसका विवाह हुआ है। सुबह-सुबह यह हृदय विदारक दृष्य देख शंकराचार्य जी भी दुःखी हो गए। उनका गंगा स्नान का समय हो रहा था। अतः उस युवती से उन्होंने कहा - माता इस संसार में जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा। तु व्यर्थ विलाप क्यों करती है? तुम्हारा क्या था, जो तुमने खो दिया? अब जरा रास्ता दे, मुझे गंगा स्नान को जाना है। कह उठे पोथी पढ़ कर विद्वान हुए शंकराचार्य जी। बार-बार कहने पर भी जब उस युवती ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया,तो शंकराचार्य जी खीझ उठे – “माता मेरी बात पर ध्यान क्यों नहीं देती, जरा इस शव को बगल कर मुझे रास्ता दे।” इस पर वह युवती बोली - देखते नहीं मेरा पति अभी-अभी मरा है। मुझ असहाय युवती से अकेले यह कैसे हटेगा? मेरे परिवार वाले आते होंगे, वे इसकी अंत्येष्टि के लिए ले जायेंगे।
मेरे पास इतना समय नहीं है, माँ।
तु तो बलिष्ठ है, तु ही इन्हें एक किनारे कर दे।
मैं संन्यासी हुँ माँ, किसी सांसारिक व्यक्ति के लाश को भला मैं कैसे स्पर्ष करूं?- शंकराचार्य जी बोले।
अब उस युवती का चेहरा तमतमा उठा। बोली – तब तो केवल एक ही रास्ता है, संन्यासी जी, आप खुद इस शव को कह दीजिए कि यह रास्ते से एक ओर हट जाए।”
शंकराचार्य जी और भी विस्मय में पड़ गए। भला ऐसे कैसे हो सकता है। कहीं लाश भी स्वयं चल सकती है। तब वह युवती बोल उठी – क्यों शंकर के शिष्य शंकराचार्य जी। आप ही तो कहते थे, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। जिस प्रकार मिट्टी से बनी हुई वस्तु मिट्टी की ही कही जाएगी, उसी प्रकार ब्रह्म की कृति भी तो ब्रह्म ही है। तो फिर अपने ब्रह्म से क्यों नहीं कह देते कि एक ओर हट जाए। शक्ति नहीं रही इसके शरीर में तो क्या हुआ? अब भी तो यह शिव की ही कृति है।”

अब शंकराचार्य जी की आंखें खुली। गिर उठे उस युवती के चरणों में क्षमा मांगते हुए। पहचान नहीं पाया माँ। क्षमा करो। तुम्हीं एक मात्र इस संसार समेत संपूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली हो। यह जगत मिथ्या नहीं माँ, तेरी लीला का विलास मात्र है। तू शिव के अधीन नहीं जगदम्बा, बल्कि शिव तेरे अधीन हैं। मैं जान गया माँ कि शक्ति जब शिव से निकल जाए तो वह केवल शव रह जाता है। शिव तेरे बिना स्वतंत्र कुछ भी करने में असमर्थ है, माँ। बार-बार क्षमा मांगता हूँ महादेवी। क्षमस्व अपराधम्-क्षमस्व अपराधम्। ऐसा कहते हुए बार-बार रोने लगे, उस युवती के चरणों में गिरकर शंकराचार्य जी। जो ज्ञान उन्हें पूरी जींदगी में प्राप्त न हुआ था, वह कुछ ही देर में उन्हें प्राप्त हो गया और कह उठे – “त्वमेका भवानी त्वमेका।” अब तक का प्राप्त सारा ज्ञान उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगा। अब वहाँ न वह युवती थी और न वह शव। वहाँ साक्षात् त्रिशुल एवं चक्र धारण किए जगदम्बा थीं। शिव की नगरी में शक्ति ने लीला दिखा ही दी और सत्य-सनातन वैदिक धर्म की रक्षा हेतु मठों की स्थापना की आज्ञा दी। कालांतर में भगवती की आज्ञा पाकर शंकराचार्य जी ने भारत वर्ष में चारों दिषाओं में चार मठों एवं अनेक उपमठों की स्थापना की और वहाँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी एवं उनके विविध स्वरूपों की पूजा का विधान किया। सर्वप्रथम कांचीकामपुरम् पीठ की स्थापना हुई। इस मठ की स्थापना के पूर्व माता जगदम्बा ने फिर एक बार लीला रची। जहाँ आज कांचीकामपुरम् का मठ है, वहाँ शंकराचार्य जी ने एक आधी रात को बड़ी विचित्र लीला देखी। देखा कि एक विशाल महान विषधर सर्प फन ताने बैठा है, और वह एक गर्भिनी मेंढकी की रक्षा कर रहा है। समझ गए शंकराचार्य जी आदि शक्ति माता जगदम्बा की लीला को, कि सत्य-सनातन धर्म की रक्षा स्वयं भगवती ही कर रही हैं। बस हो गया सनातन धर्म की रक्षा हेतु सर्वोत्तम भूमि का चयन, जिसे स्वयं भगवती ने ही चुन कर दिया था। जिस जगह पर भय प्रदाता भी रक्षात्मक हो जाए, वही है सनातन धर्म की स्थापना का केंद्र बिंदु। मृत्यु भी जहाँ जीवन में परिवर्तित हो जाए। भक्षक भी रक्षक हो जाए।

 
अगर महालक्ष्मी न हो तो भला विष्णु की पूजा कौन करेगा? चंद्रमा में शीतल चांदनी न हो तो चंद्रमा का क्या महत्व? अग्नि में दाहक शक्ति न हो तो अग्नि की क्या आवष्यकता? और फिर शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी की रचना कर माता त्रिपुरसुन्दरी के महातिशय अगम्य महासौन्दर्य का दिव्य वर्णन् किया और उनकी प्रंशसा में यह लिखा कि – “हे माँ, माता महात्रिपुरसुन्दरी, अगर तुम न हो तो भस्म रमाये, बुढ़े बैल की सवारी करने वाले शिव को भला कौन पूजेगा? भगवान शिव का वास्तविक सौन्दर्य हे माँ बस आप ही हैं।
खैर मेरा इन सब बातों को कहने का यह अर्थ मत लगा लेना कि मैं देवाधिदेव का विरोधी हूँ या दक्ष प्रजापति की तरह उनकी अवमानना कर रहा हूँ। ऐसा मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता। क्योंकि मैं जानता हूँ कि शिव के विरूद्ध बोलने का अर्थ है, अपनी शीष की आहुति देना। शिव के खिलाफ दक्ष बोला, उसका सिर कटा। शक्ति स्वरूपा सती को भी अपने प्राण त्यागने पड़े। गणेश का भी सिर कटा, ब्रह्मा का भी सिर कटा इत्यादि।


बस मेरा ये सभी बातें कहने का उद्देश्य यह था कि भगवान शिव के नाम पर हो रही राजनीति रूक जाए। ढोल पीटने वाले, मुँह चलाने वाले, गुरूओं की अवमानना करने वालों का मुख कीलित हो जाए। गुरू एवं शिष्य की परम्परा चलती रहे। और ये सब बातें वह व्यक्ति कह रहा है, जिसने सर्वप्रथम तांत्रोक्त एवं वैदिक उपासना शिव की ही की है। शिवरात्रि में चारों प्रहर पूजन किया। सावन के पवित्र माह में अखण्ड दीप प्रज्वलित किया। अपने शिष्यों एवं मित्रों को सर्वप्रथम शिव पूजन ही संपन्न करवाया। न जाने कितने पार्थिव शिवलिंगों का निर्माण कर पूजन किया मैंने। जब मेरी माँ बीमार पड़ी तो रात-रात भर जाग कर शिव से उनके प्राण की भिक्षा मांगी। और आद्या शक्ति ने जब नैना देवी के रूप में साक्षात् दर्शन दिया तो वह भी शिवलिंग के माध्यम से, शिवलिंग के योनि पीठ पर ही। और वह अभिषेक यह सब कैसे सहन कर सकता है, कि कुछ अति शातिर लोग देवाधिदेव के नाम पर अपनी दुकान चलाए और गुरू परम्परा का विरोध करे। अगर मेरे साथ गुरू की कृपा न होती तो क्या यह सब संभव था, कतई नहीं। मैंने बस यह जाना – “गुरू मिले सो हरि मिले।”

यह सही है कि आज धर्म में कुछ अवांछनीय तत्वों का प्रवेश हो गया है। जेल से छूटे हुए अपराधी भी संत होने का स्वांग रच रहे हैं। चोरी एवं पॉकेटमारी करने वाले लोग भी माया अति ठगिनी का संदेश दे रहे हैं। जीवन भर लड़कियों के पीछे घुमने वाले पापी भी बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य का उपदेश दे रहे हैं। कुछ पैसे के लिए किसी का भी गला काट लेने वाले जेल से छूटने के बाद सत्य-अहिंसा का संदेश देते हैं। ऐसे कुछ मुठ्ठी भर पापियों के कारण पूरे संत समाज को बदनाम करना कतई उचित नहीं। अगर कुछ नाले गंगा में मिल जाये, तो गंगा की पवित्रता समाप्त नहीं होगी। हाँ समाज से ऐसे पापियों को निकालना ही होगा।
भगवती त्रिपुरसुन्दरी पंचप्रेतासिना हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं ईश्वर स्तम्भ हैं, तथा सदाशिव फलक हैं, और इन सबके ऊपर भगवती त्रिपुरसुन्दरी आसीन हैं। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता संस्कृति के पांच आधार स्तम्भ हैं – गंगा, गाय, गीता, गायत्री और गुरू। इनके बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर आज गंगा मैली हो चुकी है। प्रदूषण से उसका पानी विषैला हो चला है। गाय कसाईखाने में काटी जा रही है। अब उसके प्रत्येक अंगों की कीमत है। अरब देशों को खुश करने के लिए गाय एवं इसके कुल का नाश किया जा रहा है। गीता का ज्ञान अप्रासंगिक एवं पुरातन करार दिया जा रहा है। अंग्रेजों की गुलामी युक्त शिक्षा पद्धति जहर बन यहाँ के बच्चों के नस-नस में घोली जा रही है। गायत्री को काल्पनिक देवी कहा जा रहा है और मदर मरियम का आदर्श उपस्थित किया जा रहा है, कि कुंवारेपन में बच्चा पैदा कर उसे परमेश्वर के पुत्र का नाम दो, क्योंकि उसका वास्तविक पिता कौन है, पता नहीं। गायत्री मंत्र के जप को समय की बर्बादी बतायी जा रही है। और यहाँ सच्चे गुरूओं की दुर्गति ही है। पग-पग पर उनका अपमान हो रहा है। तमाशा दिखाने वाले ओझे-गुणियों के कारण सच्चे गुरू समाज से स्वतः कटते जा रहे हैं।
और जाते-जाते मैं इस समय वर्तमान् के सबसे प्रबल गुरू का जिक्र करूंगा, भोपाल के गुरूदेव श्री अरविंद सिंह जी का। रुद्राक्षों के प्रति उनका प्रेम दीवानेपन की हद तक है। उन्होंने श्री निखिलेश्वरानंद जी को समर्पित निखिल भूमि का निर्माण किया है, जिसमें उच्च कोटि के तंत्र अनुष्ठान् होते हैं। दुर्लभ जड़ी-बुटियाँ इस निखिल भूमि में रोपे गए हैं। तंत्र क्षेत्र के सबसे गोपनीय पहलूओं का गुरू जी ने लाखों-करोड़ों खर्च कर, जी-जान लगा कर प्रकाशित किया।
इन्होंने अकेले अपने दम पर अति गोपनीय कामकला काली तंत्र, गुह्य काली, पक्षीराज शालुवेश शर्भेश्वर तथा दक्षिणामूर्ति संहिता का उद्धार किया, सामान्य शिष्यों के लिए भी उपलब्ध कराया, इत्यादि। संसार का एकमात्र अति उग्र पक्षीराज का मंदिर स्थापित किया। संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि जो कार्य इन्होंने अकेले कर दिखाया, वह किसी संस्था से भी संभव नहीं था।
मैंने ऊपर एक पद कहा था – शीष दिए जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान |” हाँ यह सच है, कुछ विद्यायें ऐसी होती हैं, जो गुरू हर किसी को प्रदान नहीं कर सकता। ऐसी विद्यायें प्राप्त होते ही साधक का पंचमहाभूतों पर अधिकार हो जाता है। उन्हीं में से एक विद्या है - कामकला काली की साधना। इनके वास्तविक रूप से अब तक मात्र ग्यारह साधक ही हुए हैं -


इनके दो मंत्र इस प्रकार है - क्लीं क्रीं हूं क्रों स्फ्रें क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा। तथा छ्रीं स्फ्रें हूं क्लीं फट्। इत्यादि।
मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा तो आधी तभी पूर्ण हो जाती है, जब उसे कोई उच्च कोटि का तंत्रज्ञ गुरू प्राप्त हो। मैं आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण होने के लिए गुरू बनाने को कह रहा हूँ, पर किसी गुरूघंटाल को गुरू मत बना लेना, नहीं तो और भी अनर्थ है।
अब यह समझो कि तुम्हारा आध्यात्म किस स्तर का है – पांच-दस रूपये का जंतर पहन लेने का या झाड़-फूंक करवाने का, या फिर किसी मजार पर सिर झुलाने वाला। या फिर उच्च कोटि की महाविद्या साधना संपन्न करने वाला। कुछ लोग तो आठ वर्ष की ऊम्र से अगरबत्ती जलाना चालू करते हैं, और अस्सी वर्ष की ऊम्र तक अगरबत्ती ही जलाते रह जाते हैं।
अब जो शिव को गुरू बनाने का नियम है, उसका क्या अर्थ है, यह बताता हूँ। हमारे धर्म ग्रंथों में एक नियम यह दिया गया है कि अगर किसी उच्चकोटि की गुरू की प्राप्ति न हो रही हो, तो ऐसी दशा में किसी भी देव शक्ति, जैसे – शिव, सूर्य, गणेश, दुर्गा या फिर हनुमान में से किसी एक को षोडषोपचार पूजन कर उनके किसी एक मंत्र का जप कर, वो भी सामान्य मंत्रों का ही मात्र, लाभ उठाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह मत लगा लेना कि इससे उच्च कोटि के तंत्रज्ञ बन जाओगे। कोई व्यक्ति हनुमान का मूल मंत्र जप कर उन्हें गुरू मान ले, लेकिन वह उनके शाबर मंत्रों, विशेष कर प्रकटीकरण मंत्र का प्रयोग नहीं कर सकता। इससे जान को खतरा भी हो जाता है। गुरू के अनुभव का लाभ शिष्य उठाता है।
गुरू तो वह प्रबल शक्ति है, जो सामान्य से सामान्य शिष्य को भी असामान्य बना दे। रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरू तो नरेंद्र को भी विवेकानंद बना देते हैं।
कृष्ण जैसा गुरू हो, तो अर्जुन भी पुनः युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। निखिलेश्वरानंद जैसा ब्रह्माण्डीय गुरू हो तो एक अत्यंत सामान्य लड़के अरविंद सिंह जी को वर्तमान का सुदर्शन स्वामी बना दे। और अरविंद सिंह जैसा महागुरू हो तो मुझ जैसे अधम को भी अभिषेक से तंत्र, मंत्र विशेषज्ञ ‘अभिषेक जी महाराज’ बना दे। प्रत्येक देव शक्तियों का अनुभव करा कर उनके बारे में कुछ लिखने की शक्ति प्रदान कर दे। शिष्यों की गलतियों पर निगरानी रखता है, गुरू। गुरू तो उस कुम्हार की तरह होता है, जो मटका बनाते समय ऊपर से तो प्रहार करता है, पर भीतर से सहारा दिए रहता है।

परमहंस जी ने विवेकानंद को एक बार कहा था – तु क्या सोचता है, तू यह कार्य करता है। तेरी हड्डियाँ कड़क जाएंगी, पर भगवती तेरा गर्दन पकड़ कर तुझसे अपना कार्य ले लेंगी।”
बस कुछ इसी तरह का मेरे साथ भी हो रहा है। उच्च कोटि के गुरूओं के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलना सब के वश की बात नहीं। आधे से ज्यादा तो बीच रास्ते में ही लटक जाते हैं और गुरू को गाली देने लगते हैं। बस कुछ मुठ्ठी भर ही षिष्य होते हैं, जो गुरू के कदम-से-कदम मिला, उनका अनुगामी हो, परम गुरू को प्राप्त कर लेते हैं। गुरू की शरण में जाकर यह उछल-कूद करने वाला अभिषेक भी शांत हो गया है। पॉप संगीत सुनने वाले को ब्रह्मनाद की यात्रा संपन्न हो रही है। मैंने तो सोचा था कि यह लेख मात्र एक-दो पेज में संपन्न हो जाएगा, पर गुरू कृपा से यह विस्तृत एवं तथ्य पूर्ण हो गया है। सामने परमपूज्य गुरूदेव श्री निखिलेश्वरानंद जी की तस्वीर लगी है। गुरू जी अब जो चाहे, मुझसे संपन्न करवा लें। मैं तो माध्यम मात्र हूँ। इस लेख को लिखने का माध्यम उन्होंने मुझे चुना, यह उनकी कृपादृष्टि है।

इस लेख को लिखने का मेरा तात्पर्य किसी की भी धार्मिक भावना को चोट पहुंचाना कतई नहीं था, बल्कि वास्तविकता को उजागर करना था। अब जैसी आपकी इच्छा। ओषो रजनीश ने कहा भी है – धर्म जब से विचार न होकर भावना हो गयी है, तभी से यह मतभेद एवं संघर्ष उत्पन्न हुआ है।”
मुझे महसूस हो रहा है कि यह लेख किसी परमब्रह्माण्डीय शक्ति के द्वारा ही प्रेरित है, क्योंकि जैसे ही इस लेख को लिखना प्रारंभ किया, परिस्थितियाँ मेरे अनुकूल हो रही हैं। सभी दुष्टों का मर्दन करने हेतु माता की आज्ञा से पुनः एक बार बगलामुखी साधना संपन्न हो गई। मित्रों एवं शिष्यों की संख्या बढ़ रही है। कुछ जगह दिव्य अनुष्ठान् संपन्न करवाने को आमंत्रण भी आ गए हैं। जो कुछ मुझे कहना था, इस लेख के माध्यम से कह दिया। अब मेरा अगला लेख धर्म के नाम पर पशुबली के खिलाफ होगा।
।। परमपूज्य श्री सद्गुरूदेव जी महाराज की जय।।
नोट :- यह लेख मेरे द्वारा वर्ष 2007 के जनवरी माह में लिखा गया था। किसी कारणवश यह पड़ा ही रह गया और इसका प्रकाशन संभव न हो पाया। अब इसे समस्त धर्मप्रेमी जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी रचना भी विचित्र तरीके से संपन्न हुई। उस समय एक परीक्षा की तैयारी कर रहा था। परीक्षा नजदीक थी, याद करने की कोशिष कर रहा था, किंतु पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। कुछ रफ कागज सामने पड़े हुए थे। अचानक से मन में कुछ कौंधा, सामने परमपूज्य गुरुदेव जी की तस्वीर थी। बस लिखना चालू कर दिया। (जिन रफ कागजों पर मैंने लिखा था, वह आज भी सुरक्षित है. कोई भी व्यक्ति आकर इसे देख सकता है)। जहाँ पर अटकता गुरुदेव जी की तस्वीर पर ध्यान चला जाता और पुनः कलम चलने लगता। बस दो या तीन दिनों में मैंने इसे लिख दिया। जिस रात्रि यह पूरा हुआ, उस समय रात्रि के 12 या 1 बज रहे थे। यह मेरा लिखा गया पहला आध्यात्मिक लेख था। यह पूर्ण होने के बाद मेरा पढ़ने में भी मन लगने लगा और परीक्षा अच्छे नंबरों से पास किया। जब लिखने बैठा तो कुछ भी स्पष्ट नहीं था, कि क्या लिखना है? पर लगता है किन्हीं अदृश्य शक्तियों ने, परम गुरुओं ने इसे लिखवाया।


लेखक :- श्री अभिषेक कुमार, मंत्र, तंत्र, यन्त्र विशेषज्ञ, शक्ति सिद्धांत के व्याख्याता, दस महाविद्याओं के सिद्ध साधक, श्री यन्त्र और दुर्गा सप्तशती के विशेषज्ञ, ज्योतिषाचार्य एवं वास्तुशास्त्री.
Mob:- 9852208378,  9525719407  

मिलने का वर्तमान पता:-
पुष्यमित्र कॉलोनी, संपतचक बाजार
(गोपालपुर थाना और केनरा बैंक के बीच/बगल वाली गली में)
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पोस्ट-सोनागोपालपुर, थाना-गोपालपुर
संपतचक, पटना-7
नोट:-संपतचक बाजार, अगमकुआँ में स्थित शीतला माता के मंदिर से लगभग 8 किमी॰ दक्षिण में स्थित है। नेशनल हाईवे - 30 के दक्षिण में एक रोड गयी है, जो पटना-गया मेन रोड के नाम से जाना जाता है। इस रोड पर ही बैरिया बस स्टैण्ड है। इसी बस स्टैण्ड के दक्षिण संपतचक बाजार स्थित है। यहीं केनरा बैंक के ठीक बगल वाली गली में मेरा मकान है। जहाँ आप सभी धर्मप्रेमी भक्तजन/जिज्ञासु समय लेकर मुझसे कभी भी मिल सकते हैं।


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7 Comments

  1. please read shivpuran.It will give you clear concept about guru shiv. nama shivaay is panchari vidha.

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  2. In shiv puran panchari vidha is called guru. there is no difference in guru,shiv and panchari vidha.It is the principle of shiv puran.

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  3. Bhrast insan Aasaram aapko sant samrat lag rha hai ?

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    1. ये लेख जिस समय लिखा गया था, उस समय आसाराम बापू की छवि लोगों के बीच संत सम्राट की ही थी. लेख उसी समय का था, इसकी मौलिकता बनी रहे, इसलिए इसमें मैंने कोई परिवर्तन इस समय नही किया.

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  4. अति सुन्दर । विस्तार पूर्वक गांठों को खोलने हेतु।

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    1. धन्यवाद, प्रोत्साहन हेतु

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  5. The shiva yantra yantra is one of the most desirable yantra as its mere presence at home or workspace is auspicious and brings numerous benefits.

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