Saraswati Mahima : मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता, मैं क्या करूँ.

मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता
(आज के विद्यार्थियों की वर्तमान समस्या)
        हमारे शास्त्रों में लिखा गया है, जो व्यक्ति ज्ञान से हीन है, वह पशु के समान है। ज्ञान से हीन व्यक्ति बिना सींग एवं पूंछ के पशु है। जीवन में विद्या एवं ज्ञान का महत्व कम कर के नहीं आंका जा सकता। विद्या प्राप्ति का अर्थ केवल लोगों ने किताबी ज्ञान से ले लिया है, पर वास्तविक अर्थ ऐसा नहीं है। जीवित रहने हेतु भी ज्ञान आवश्यक है। अगर कृषि कार्य का ज्ञान न हो, तो भोजन कहाँ से मिलेगा। कौन मित्र है, कौन शत्रु, कौन विषैला सर्प है, तो कौन दूध देने वाली गाय, कौन मीठे फलों वाला वृक्ष है, तो कौन विष वृक्ष इत्यादि का ज्ञान होना आवश्यक है। अगर मनुष्य में सोंचने समझने की शक्ति न हो तो सड़क पार करना भी मुश्किल है। पर यहाँ बात कर रहा हूँ, वर्तमान समस्या की, जिससे कि आज के अधिकतर छात्र पीड़ित हैं।
        शिक्षा दो प्रकार की होती है - सैद्धान्तिक एवं व्यावसायिक शिक्षा। व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य  इतना ही रहता है कि व्यक्ति अपने क्षेत्र विशेष में तकनीकी दक्षता हासिल कर ले और रोजगार की प्राप्ति  कर ले। किंतु सैद्धान्तिक शिक्षा जीवन के समस्त पहलुओं और विषयों का अध्ययन करती है। कालांतर में सैद्धान्तिक शिक्षा का उद्देश्य भी व्यवसाय की प्राप्ति करना ही होता है।

        जहाँ तक मेरा विचार है, व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति केवल कार्य संपन्न करने वाला कर्मचारी हो जाएगा, किंतु जीवन के अनेक समस्यायें आने पर वह विवश हो जाएगा। किंतु सैद्धान्तिक शिक्षा जीवन के सभी समस्याओं पर प्रकाश डालता है। जैसे विज्ञान के क्षेत्र में बिजली के इस्तेमाल के समय यह जानना जरूरी है कि कौन-सा पदार्थ बिजली का सुचालक है या कुचालक। कौन-सा जंतु विषैला है या कौन-सा रसायन हानिकारक।
        भूगोल के क्षेत्र में जायें, तो अगर आपको कहीं जाना है, तो उस क्षेत्र का वातावरण कैसा है, वहां गर्म कपड़े की जरूरत पड़ेगी या नहीं इत्यादि यह जानना आवश्यक है। आज के समय में हर व्यक्ति को अपने देश के प्रमुख कानूनों की जानकारी होना अति- आवश्यक है। अगर कहीं विदेश टूर में अथवा कार्य करने हेतु जा रहे हैं, तो वहां के कानून की जानकारी होना अति आवश्यक है। उसी प्रकार और सूक्ष्म दृष्टि से देखें, तो शिक्षा के तीन अन्य प्रकार सामने आते हैं - आत्मकल्याणकारी शिक्षा, जनकल्याणकारी शिक्षा तथा विनाशकारी शिक्षा। मैं यहाँ शिक्षा प्राप्ति में आ रहे विध्नों के आध्यात्मिक पहलू पर चर्चा करूंगा। आमतौर पर छात्रों की समस्या रहती है, किसी खास विषय में मन न लगना, पढ़ाई के समय मन भटक जाना, अध्ययन काल में गलत-संगति में पड़ जाना, आर्थिक संकट हो जाना, सही शिक्षक या मार्गदर्शक का उपलब्ध न होना।
        अब तो वर्तमान् में एक सबसे भयंकर समस्या उत्पन्न हो गई है – शिक्षकों द्वारा छात्रों का यौन शोषण। विद्या के मंदिर को अपवित्र किया जा रहा है। साथ ही आजकल बच्चों में हिंसात्मक प्रवृति बढ़ रही है। अब तो 13 वर्ष का बच्चा, 15 वर्ष का बच्चा घोर गैरकानूनी अपराधिक कार्यों में संलिप्त है। आम तौर पर बच्चों में ऐसी समस्या आने पर माता-पिता परेशान हो जाते हैं। उनके मनोविज्ञान को समझे बिना उन्हें शारीरिक दंड दिया जाता है, घोर मानसिक प्रताड़ना दी जाती है, जिससे बच्चों में उद्दण्डता बढ़ती है, हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं एवं आत्महत्या की प्रवृत्ति।
        ऐसी समस्यायें आने पर माता-पिता बच्चों को लेकर किसी गंडे-ताबीज देने वालों के यहाँ, पंडित-मौलवी इत्यादि के यहाँ दौड़ने लगते हैं, और फिर शुरू होता है, धर्म के इन तथाकथित ठेकेदारों द्वारा गण्डे-ताबीज देने का दौर शुरू। पर इससे होता क्या है, गली का गरीब मौलवी-पंडित है, तो कागज पर यंत्र लिख कर दे देगा और कोई बहुत बड़ा गुरू या ज्योतिषी है, तो रत्न, पिरामिड इत्यादि में उलझा देता है। अब तो फैशन हो गया है। अगर किसी का विद्या पक्ष कमजोर है, तो सीधे कह दिया जाता है, बृहस्पति कमजोर है, टोपाज या पुखराज पहन लो। पर किसी ने आज तक इसका सूक्ष्म आध्यात्मिक विवेचन किया ही नहीं है। जब तक रोग का कारण समझ में नहीं आएगा, उसका निदान कैसे संभव होगा/ क्यों होता है, बच्चों की पढ़ाई में यह समस्या उत्पन्न/ आखिर ऐसा कौन-सा कारक तत्व है, जो बच्चों को पढ़ने नहीं देता।
        मैं बच्चा था। बरसात के दिनों में एक कीड़ा मुझे बार-बार तंग कर रहा था। मैं परेशान था, उससे। मेरी माँ वहीं पर थी। उसने मुझे परेशान देखा और कीड़े को किसी चीज से मार दिया। बस मेरी रक्षा हो गयी और मैं परेशानी से बच गया।
        विश्व के प्राचीन धार्मिक मान्याताओं के अनुसार जीवन के हर क्षेत्र से संबद्ध देवी-देवता हैं। जैसे- पूर्ण संहार हेतु देवी काली, युद्ध की देवी दुर्गा, धन की देवी लक्ष्मी, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु, संहारकर्त्ता रूद्र, तो ज्ञान की देवी सरस्वती। परमब्रह्म ने इन्हें ज्ञान, विद्या, आध्यात्म एवं स्वर की अधिष्ठात्री नियुक्त किया है।
        जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ आने पर शस्त्र उठाना ही पड़ जाता है। वंशी बजाने वाले कृष्ण को भी चक्र उठाना पड़ ही जाता है।
        अब इस विद्या की देवी का स्वरूप देखें। ब्रह्मलोक में जो ब्रह्माजी के साथ सरस्वती विराजती हैं, ग्रंथों में उनके स्वरूप् का ध्यान इस प्रकार बताया गया है। भगवती का स्वरूप श्वेत  वर्ण का है। वस्त्र भी उनके श्वेत वर्ण के हैं एवं उनका आसन कमल भी श्वेत ही है। उनका वाहन हंस भी श्वेत है। भगवती के चार हाथ हैं। एक हाथ में स्फटिक माला, दूसरे हाथ में वेद अर्थात् प्रथम एवं परम ज्ञान, तथा अन्य दो हाथों में वीणा धारण की हुई हैं। देवी पूर्ण यौवनमयी हैं। इस शक्ति के अधिष्ठाता एवं नियंत्रणकर्त्ता श्री ब्रह्मा जी का स्वरूप देखिए। ब्रह्मा जी रक्त वर्ण के हैं, एवं उनका आसन कमल पुष्प भी लाल है। ब्रह्माजी राजहंस की सवारी करते हैं। ब्रह्माजी के चार मुख हैं, तथा चार हाथ हैं। उनके चारों हाथों में कमण्डलु (ब्रह्म ज्ञान एवं ब्रह्म जल का प्रतीक, जो कि सृष्टि में जीव की उत्पत्ति का प्रमुख केंद्र है।) चारों वेद, रूद्राक्ष माला तथा लाल कमल शोभा पाते हैं। उनकी अवस्था वृद्ध है, और उनका पांचवा ऊर्ध्वमुखी मुख शिव द्वारा कटवा दिया गया है, अर्थात् परमेश्वर द्वारा दंड पा चुके हैं। उनके ऊपर बढ़ने की कला रोक दी गई है, और वे चारों दिशाओं में दृष्टि रखे हुए हैं।
        यहाँ इन दोनों के ही हाथों में एक भी शस्त्र नहीं है। अब जबकि इनके पुत्रों पर, साधकों पर, इनके क्षेत्र के लोगों पर किसी प्रकार का कोई आक्रमण हो, संकट हो तो भला किस प्रकार से रक्षा कर पायेंगे/ अपने बछड़े पर संकट देख गाय भी सींग मारने को उद्यत हो जाती है। बस यही कारण है, इनके अराधकों अर्थात् विद्यार्थियों को सर्वाधिक कष्ट एवं विध्नों का सामना करने का। एक और कारण देखें। स्त्री तब तक पूर्ण नहीं होती, जब तक वह माँ न बन जाए। ओंकार स्वरूप् महागणपति सभी देवियों के पुकार पर उनके लोक में अपने अंश से पुत्र के रूप में प्रकट हो गए। सर्वप्रथम भगवान शंकर एवं पार्वती के यहाँ वे कार स्वरूप में उनके पुत्र के रूप में प्रकट हुए। दुर्गा के साथ वे भक्ष्य प्रिय हैं, तो काली के साथ सुरेश अर्थात् देवताओं के स्वामी। श्री अर्थात् लक्ष्मी के साथ वे विध्नहर्ता हैं, तो वहीं सरस्वती के साथ वे विध्नकर्ता के रूप में स्थापित हैं।
बस अब आपको कारण समझ में आ गया है कि इनके अराधकों को इतना विध्न क्यों उत्पन्न होता है।
        लक्ष्मी जी का भी जो स्वरूप है, उसमें उन्होंने अपने चार हाथों में, दो हाथों में कमल पुष्प धारण कर रखा है, एक में स्वर्णमुद्रा युक्त कलष है, तथा दूसरे हाथ से धन की वर्षा कर रही हैं। इनके भी हाथ में अस्त्र-शस्त्र नहीं है। यही कारण है, इनके क्षेत्र के लोगों को भी घोर कष्ट होता है। बिना शस्त्र के ये अपने साधकों अर्थात् व्यापारियों, पूंजीपतियों की रक्षा नहीं कर पाती। लेकिन यहाँ एक प्लस प्वाइंट है। इनके स्वामि श्रीहरि विष्णु अपने हाथों में चक्र एवं गदा तथा कंधे पर शारंग धनुष धारण करते हैं। अर्थात् इनके साधक स्वयं तो अपनी रक्षा नहीं कर पाते, किंतु किसी अन्य शस्त्रधारी से रक्षा प्राप्त करते हैं। जीवन एक संग्राम है। कभी-न-कभी युद्ध करना ही पड़ जाता है। अगर लक्ष्मी को युद्ध में जाना पड़े, तो वे भी नारायणी स्वरूप धारण कर हाथ में चक्र, गदा एवं शंख धारण कर ही लेती हैं। वाहन उनका गरूड़ हो जाता है। लेकिन देवी सरस्वती ब्रह्माणी का रूप् धारण करती हैं। उनके हाथ में कमण्डलु एवं रूद्राक्ष माला आ जाती है। जहाँ नारायणी (लक्ष्मीद) दिल में कोमलता रहते हुए भी युद्ध करती हैं, तो वहीं ब्रह्माणी केवल निस्तेज मात्र करती हैं। हो सकता है कोई और शक्ति उस शत्रु में तेज उत्पन्न  कर दे। बस यही कारण है, उनके आराधकों का सर्वाधिक पीड़ित होने का। यहाँ मैं महासरस्वती की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, जो देवी कौशिकी के रूप में उत्पन्न हुई थी और शुम्भ-निशुम्भ का संहार किया था।
        मैंने अपने गुरूदेवजी से बार-बार कहा था कि 'गुरू जी सरस्वती पर भी कुछ लिखें, ज्ञान प्रदान करें।' पर उन्होंने टाल दिया। मुझे आज्ञा दी कि नील सरस्वती की साधना संपन्न करो। शरीर में सरस्वती का वास कण्ठ में एवं जिव्हा पर माना गया है। आखिर क्या कारण था, विषपान के उपरांत शिव को अपने कंठ में सरस्वती की जगह नीलसरस्वती को स्थापित करने की।
        अब नील सरस्वती का ध्यान देखें। वे शव के आसन पर हैं, एवं सर्पों का आभूषण है। उनके चारों हाथ में कपाल, पानपात्र, त्रिशूल एवं मुण्ड है, तथा मुण्डमाला धारण की हुईं हैं, तथा तीन नेत्र हैं। ये मुख्यतः तांत्रिकों को विद्या प्रदान करती हैं।
        ब्रह्मलोक की भगवती सरस्वती श्वेत वर्ण की हैं। श्वेत वर्ण पवित्रता, उज्जवल चरित्र एवं ज्ञान का प्रतीक है। एक विद्यार्थी का जीवन भी पवित्र एवं उच्च चरित्र युक्त होना चाहिए। किंतु अब तो लोग विद्या के प्रेत हो गए हैं। गेस प्रश्न रट कर किसी प्रकार से अधिक से अधिक नंबर प्राप्त कर लेने को ही विद्या प्राप्ति समझ लिया गया है। इनका वाहन श्वेत राजहंस है।  हंस का यह गुण है कि वह पानी मिले दूध को जब पीता है, तो दूध पी जाता है और पानी को अलग कर देता है। एक सच्चे विद्यार्थी या विद्वान में यह गुण होना चाहिए कि वह सत्य-असत्य में, गुण-अवगुण में, न्याय-अन्याय में, ज्ञान-अज्ञान में, विद्या-अविद्या में, धर्म-अधर्म में इत्यादि में सही-सही फर्क कर सके।
        लेकिन एक बात पर यह भी ध्यान दें कि श्वेत वर्ण पर दाग भी बहुत जल्दी दिखता है। अति शीघ्र मैला भी हो जाता है। मैंने पहले कहा सरस्वती का निवास हमारे शरीर में जिह्वा एवं विशुद्ध चक्र अर्थात् कण्ठ में रहता है। सहस्रार में परम शिव भगवती त्रिपुर सुन्दरी के साथ आलिंगनबद्ध रहते हैं। सरस्वती की तुलना हम किसी पार्टी के उस प्रवक्ता से कर सकते हैं, जो अपने अध्यक्ष या पार्टी के निर्णय या विचार को जनता के सामने प्रस्तुत मात्र कर देते हैं। उसी प्रकार सरस्वती भी मस्तिष्क में उठे विचार तरंगों को परम शिव की आज्ञा से वाणी का रूप प्रदान कर देती हैं। आज्ञा तो कहीं और से प्राप्त होती है।
        आगे मैं महासरस्वती, ब्रह्मसरस्वती और नीलसरस्वती पर कभी विस्तृत चर्चा करूंगा। आखिर क्या अंतर है इनमें ? पर अभी मैं विवश हूँ, इन महाशक्तियों की विशद विवेचना में। एक बात पर और विवेचना करूंगा कि आखिर क्यों शिव को ब्रह्मसरस्वती को नीलसरस्वती में परिवर्तन करना पड़ गया।
        अब मैं इसका ज्योतिषिय विवेचन कर दूं। विद्या प्राप्ति का कारक ग्रह बृहस्पति को माना जाता है। आमतौर पर किसी को अगर विद्या प्राप्ति में व्यवधान आ रहा है, उसे बृहस्पति का दोष बता दिया जाता है, और बृहस्पति का रत्न पहनने की सलाह दी जाती है। बृहस्पति की शांति करायी जाती है, इत्यादि। बृहस्पति देवताओं का गुरू है। यह शिक्षक विद्यालय, पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराता है। यह तो लगभग सभी विद्यार्थियों को उपलब्ध होता है, किंतु पढ़ने में मन न लगना, इस बात को ज्योतिषी बंधु भूल जाते हैं। मन का कारक ग्रह चंद्रमा है। मेरी ज्योतिषी बंधुओं को सलाह है कि वे बृहस्पति के साथ-साथ चंद्रमा एवं अन्य ग्रहों की स्थिति पर भी विचार करें। चंद्रमा जब पापी ग्रहों द्वारा दृष्ट होता है, अथवा किसी क्रूर ग्रह के साथ एक साथ किसी भाव में बैठ जाए अथवा राहु-केतु के साथ युति कर ग्रहण योग बनाए तो मानसिक वाचालता जातक में बनी रहती है। कुण्डली में पंचम भाव विद्या प्राप्ति का है। अगर यहाँ कोई ग्रह अपने नीच राशि में बैठ जाए तो विद्या प्राप्ति में व्यवधान आता है। चंद्रमा अगर शुक्र द्वारा पीड़ित होता है, एवं शुक्र को कोई पापी ग्रह देखता है, तो जातक के मन में असमय यौन आकांक्षा एवं दुष्चरित्रता उत्पन्न होती है। पढ़ने में मन नहीं लगने देता तथा विपरीत लिंग आकर्षण उत्पन्न करता है। आज अधिकांश युवा इस दोष से पीड़ित हैं। ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों को सरस्वती की पूजा-अर्चना करने से लाभ मिलता है। जातक को विद्या प्राप्ति एवं पढ़ने में मन लगने का यंत्र पहनना चाहिए। जीवन में वह सरस्वती कवच को विशेष महत्व दे। विद्यार्थियों की इसी आवश्यकता को देखते हुए यहाँ सरस्वती कवच दे रहा हूँ। सरस्वती का चित्र एवं यंत्र प्राप्त कर नित्य एक बार कवच पाठ कर लेने मात्र से गारंटी लेता हूँ, किसी ज्योतिषी या यंत्र बगैरह लेने के लिए चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा। यहाँ मैं कुछ विशेष सरस्वती मंत्र लिख रहा हूँ। किसी गुरू से दीक्षा प्राप्त कर किसी एक का विधिवत् जप करने से षीघ्र लाभ प्राप्त होता है।
मंत्र -
1.     ऐं सरस्वत्यै नमः।।
2.     ह्रीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा।
3.     ऐं क्लीं सौः वद वद वाग्वादिनी स्वाहा।
4.     सरस्वत्यै च विद्महे, ब्रह्मपुत्रये च धीमहि। तन्नो वाणि प्रचोदयात्।।
5.     ह्रीं
श्रीं ऐं वाग्वादिनि भगवति अर्हन् मुख निवासिनी सरस्वती ममास्ये प्रकाशं कुरू कुरू स्वाहा।
6.     नमो श्रीं वद वद वाग्वादिनी बुद्धि वर्द्धय ह्रीं नमः स्वाहा।

        सरस्वती के अलावा विद्या प्राप्ति हेतु श्री गणेश, हनुमान, विद्या गोपाल मंत्र, गायत्री मंत्र, सूर्य मंत्र, बृहस्पति मंत्र एवं दक्षिणामूर्ति शिव गुरू के मंत्र की भी साधना की जाती है।
विद्या प्राप्ति हेतु एवं परीक्षा पास करने हेतु श्री गणेश एवं हनुमान मंत्रः-
श्री गणेश मंत्र -
 एकदन्त महाबुद्धि सर्वसौभाग्य दायकः। सर्वसिद्धि करो देवा गौरि पुत्र विनायकः।।
श्री हनुमान मंत्र -
बुद्धि हीन तनु जानि के सुमिरौं पवन कुमार। बल, बुद्धि, विद्या देहु मोहि हरहु क्लेश विकार।।
        इनमें गणेश मंत्र की साधना बुधवार से तथा हनुमान मंत्र की साधना मंगलवार से करें।
श्री विद्या गोपाल मंत्र -
1.      कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमा रमण विश्वेश, विद्यामाशु प्रयच्छ मे।।
2.      ऐं क्लीं कृष्णाय ह्रीं गोविन्दाय श्रीं गोपीजन वल्लभाय स्वाहा सौः।।
(
श्री नील सरस्वती देवी)
श्री नील सरस्वती मंत्र – 
 श्रीं ह्रीं ह्रः सौः हुं फट् नील सरस्वत्यै स्वाहा।
श्री विद्याराज्ञी मंत्र -
ऐ ह्रीं श्रीं क्लीं सौं क्लीं ह्रीं ऐं ब्लूं स्त्रीं नीलतारे सरस्वती द्रां द्रीं ब्लूं सः ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः सौः ह्रीं स्वाहा।
       

     विद्या प्राप्ति में आ रही कठिनाइयों को दूर करने के लिए सामान्य प्रयोग -
जिस बच्चे को विद्या प्राप्ति में कठिनाइयां उत्पन्न हो रही हों, उसे दीपावली, वसंत पंचमी या कोई अन्य शुभ मुहूर्त में एक पेंसिल लेकर उसे सफेद वस्त्र में बांधकर इस मंत्र का 21 बार मात्र जप करें – ऐं क्रीं ऐं
        इसके पश्चात् किसी भी गुरूवार से प्रारम्भ कर अगले गुरूवार तक नित्य उसी पेंसिल से इस मंत्र को बच्चे द्वारा नित्य तीन बार लिखवायें। इस पेंसिल को सुरक्षित रखें।

विद्या प्राप्ति हेतु कुछ सिद्ध चमत्कारी यन्त्र 




    बच्चों को विद्या प्राप्ति में सफलता हेतु छः मुखी रूद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए।
    उच्च प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में संलग्न व्यक्तियों को छः मुखी रूद्राक्ष के साथ गणेश रूद्राक्ष एवं स्फटिक माला अवश्य धारण करनी चाहिए। सरस्वती कवच (लॉकेट के रूप में) अवश्य ही धारण करना चाहिए। शक्ति अनुसंधान केंद्र से संपर्क स्थापित करने पर यह सारी सामग्री आपको उपलब्ध कराई जा सकती है।
छः मुखी रूद्राक्ष धारण करने का मंत्र एवं विधि:-
विनियोग -
अस्य श्री कार्तिकेय मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषिः, पंक्तिः छन्दः, कार्तिकेय देवता, ऐं बींज, सौं शक्तिः, क्लीं कीलकम् विद्या प्राप्त्यर्थे च अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। षया
ऋश्यादिन्यास -
दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः।, शिरसि।  
पंक्तिष्छन्दसे नमः। मुखे।   
कार्तिकेय देवतायै नमः।, हृदि।
ऐं बीजाय नमः।, गुह्ये। 
सौं षक्त्यै नमः।, पादयोः।
करन्यास -
ॐ ॐ अंगुष्ठाभ्याम नमः।।     
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः।।  
श्रीं मध्यमाभ्यां वषट    
क्लीं अनामिकाभ्यां हुं।
सौं कनिश्ठिकाभ्यां वौषट करतलकरपृश्ठाभ्यां अस्त्राय फट्।
अंगन्यास -
ॐ ॐ हृदयाय नमः।।  
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा।  
श्रीं शिखायै वषट।  
क्लीं कवचाय हुं। 
सौं नेत्रत्रयाय वौशट्।  
ऐं करतलकर पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट्।
 ध्यान:-
सिन्दूरारूणकान्तिमिन्दुवदनं केयूरहारादिभिर्दिव्यैराभरणेर्विभूशित तनुं स्वर्गस्य सौख्यप्रदम्।
अम्भोजाभय शक्ति  कुक्कुटधरं रक्तांगरागांषुकं सुब्रह्ममुपास्महे प्रणमतां भीतिप्रणाषोद्यतम्।।
मंत्र - ह्रीं श्रीं क्लीं सौं ऐं
    इस विशेष मंत्र का यथा संभव अधिक से अधिक जप कर ;रूद्राक्ष माला सेद्ध छः मुखी रूद्राक्ष धारण करें। इस मंत्र को जपने से पहले एक माला या पांच माला 'ॐ नमः शिवाय' या 'ह्रीं ॐ  नमः शिवाय ह्रीं' का भी जप कर लें। दशांश हवन करें। जप से पहले रूद्राक्ष को नर्मेद्श्वर या पारदेश्वर  शिवलिंग के समीप रख कर षोडशोपचार विधि से शिवलिंग तथा रूद्राक्ष की पूजा संपन्न कर लें।
        विद्यार्थियों के लिए विशेष सरस्वती कवच - दो 6 मुखी और एक 4 मुखी रूद्राक्ष को चांदी में मढ़वा लें। इसके बाद सोमवार के दिन पूजाघर में शिवलिंग के पास बंध को स्थापित करते हुए 'ॐ ऐं ' मंत्र का 1100 बार जप कर लें। जप प्रातः काल संपन्न करें। अगर एक दिन में संभव न हो तो दो या तीन दिन में करें। इसके बाद इस कवच को विद्यार्थी धारण करें। उन्हें विद्या अध्ययन में अद्भुत सफलता मिलेगी।
रूद्राक्ष सरस्वती कवच का मूल्य - 200 रू0 मात्र।
        विद्यार्थियों के लिए वास्तु एवं फेंगशुई  टिप्स :-
        अध्ययन कक्ष पश्चिम या दक्षिण- पश्चिम दिशा में सर्वोत्तम रहता है। अध्ययनकर्ता का मुँह उत्तर या पूर्व की ओर होना चाहिए। अगर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, तो पष्चिम दिशा की तरफ मुँह रखें। दीवार से लगाकर टेबुल न रखें। अध्ययन कक्ष की दीवार हल्के रंग से रंगवायें। अध्ययन कक्ष में अपनी रूचि के अनुसार देवी-देवताओं या महापुरुष के चित्र लगायें। फिल्मी हीरो-हिरोईन के तस्वीर न लगायें। ऐसा करने से मन भटकेगा। शोर करने वाले उपकरण एवं टेलीफोन बगैरह अध्ययन कक्ष में न हों। इससे मन भटकता है। अपने पढ़ने के टेबल पर गायत्री, सरस्वती एवं गणेश की तस्वीर लगायें। संभव हो तो गणेश जी की एक छोटी-सी मूर्ति अवश्य टेबुल पर रखें। कमरे में लाइट न तो अत्यधिक तीव्र हो और न ही बहुत कम। अध्ययन कक्ष में व्यर्थ के गप करना या बाहरी व्यक्तियों का अनावश्यक आवागमन का निषेध करें। भोजन भी न करें। इस कक्ष में कुछ देर ध्यान अवश्य  लगायें। सरस्वती या गणेश कवच का पाठ अवश्य करें। इससे नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाएगी।
विद्यालय, कॉलेज या अन्य शिक्षण संस्थानों के लिए वास्तु टिप्स -
आखिर क्या कारण है कि कुछ विद्यालयों के विद्यार्थी सर्वाधिक अंक लाते हैं, और वही कोर्स पढ़ कर भी किसी विद्यालय के विद्यार्थी किसी प्रकार पास भर कर जाते हैं। कुछ विद्यालय या कोचिंग संस्थानों में छात्रों की भीड़ लगी रहती है, शिक्षकों को भी पढ़ाने में मन लगता है, तो कुछ शिक्षण संस्थानों में न तो छात्र टिकते हैं, न ही शिक्षक। इसके ऐसे तो बहुत कारण हो सकते हैं, किंतु मैं यहाँ सर्वोत्तम शिक्षण संस्थानों के लिए महत्वपूर्ण वास्तु टिप्स दे रहा हूँ, जिसका पालन कर आप भी अपने संस्थान का दोष सुधार कर सकते हैं, एवं अपने संस्थान को ख्याति दिला सकते हैं।
1.     किसी भी शिक्षण संस्थान के लिए वास्तुभूमि आयताकार या वर्गाकार होना चाहिए।
2.     रास्ते पूर्व या उत्तर की ओर हो।
3.     कक्षाओं के प्रवेश द्वार पूर्व, उत्तर या ईशान कोण में होने चाहिए।
4.     प्राधानाचार्य का कार्यालय (कक्ष) पश्चिम दिशा में या आग्नेय अथवा नैर्ऋत्य कोण में होना चाहिए।
5.     प्रार्थना या सभाखण्ड उत्तर में और उसका प्रवेश द्वार पूर्व में होना चाहिए।
6.     प्रयोगशाला तथा पुस्तकालय पश्चिम में हो।
7.     प्रशासनिक कार्यालय उत्तर या पूर्व दिशा में होना चाहिए।
8.     स्टाफ रूम वायव्य कोण में सर्वोत्तम होता है।
9.     स्टेशनरी या स्टॉक रूम दक्षिण या पश्चिम में हो।
10.    शौचालय नैर्ऋत्य कोण या पश्चिम में हो।
11.    पानी की टंकी या बोरिंग इत्यादि ईशान कोण अथवा उत्तर में हो।
12.    अनावश्यक वस्तुयें जैसे टूटी बेंच कुर्सियाँ नैर्ऋत्य कोण में हों।
13.    खेल-कूद हेतु मैदान पूर्व या उत्तर दिशा में हो।
 


        ऊपर मैंने विवेचना की है कि ब्रह्मसरस्वती के हाथों में शस्त्र नहीं है, और ऐसी स्थिति में इनका साधक किस प्रकार रक्षा प्राप्त कर सकता है। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति को महासरस्वती या नीलसरस्वती की भी साधना संपन्न करनी चाहिए अथवा इनके मंत्रों का जप करना चाहिए।
इनके साधकों को दूसरे देवताओं द्वारा भी रक्षा पाने का विधान शास्त्रों में है। उन्हें इस प्रकार इन तीनों मंत्रों का जप करना चाहिए।
1.     गं गणपतये नमः।। (गणेश मंत्र)
2.     श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः।। (महालक्ष्मी मंत्र)
3.     ऐं सरस्वत्यै नमः।। (सरस्वती मंत्र)

        इन तीनों मंत्रों की साधना करने हेतु विशेष गणेश-लक्ष्मी-सरस्वती का एक संयुक्त यंत्र होता है। इसमें साधक विध्नहर्ता मंगलकर्ता गणेश जी से रक्षा प्राप्त कर लेता है, क्योंकि उन्होंने अपने हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखा है। आगे के पृष्ठों में इस मंत्र और यंत्र के प्रयोग की विस्तृत विवेचना है। यह मैं अपने प्रत्येक शिष्य को विशेषकर विद्यार्थियों को देता हूँ।
भगवती दुर्गा में आदिशक्ति के तीनों स्वरूप महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती विद्यमान हैं। वैष्णो देवी मंदिर में इन तीनों की ही पींडियाँ विराजमान हैं। कुछ व्यक्ति भगवती दुर्गा की साधना द्वारा ही इन तीनों महाशक्तियों की कृपा दृष्टि चाहते हैं। उनके लिए मंत्र इस प्रकार रहेगा।
1.     ॐ ह्रीं  दुं दुर्गायै नमः।। (मूल मंत्र)
2.     ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। (नवार्ण मंत्र)
3.     क्रीं क्रीं  क्रीं (महाकाली मंत्र)
4.     श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः।। (महालक्ष्मी मंत्र)
5.     ऐं सरस्वत्यै नमः।। (सरस्वती मंत्र)
        इनमें से प्रत्येक मंत्रों का क्रम से लाल चंदन या रूद्राक्ष की माला पर जप करें। इन पांच मंत्रों की सिद्धि एकमात्र देव्यनुग्रह यंत्र पर हो जाता है। किंतु अतिविषिश्टता प्राप्त करने के लिए देव्यनुग्रह यंत्र के साथ दुर्गा यंत्र, श्री यंत्र, महालक्ष्मी यंत्र, सरस्वती यंत्र तथा सर्वतोभद्र यंत्र स्थापित कर सकते हैं।
        इस एक मंत्र द्वारा भी भगवती की तीनों षक्तियों की एक साथ साधना संपन्न की जा सकती है -
श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं महामाया महाकाली महागौरी महालक्ष्मी महासरस्वत्यै रूपिणी महाशक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं विद्या प्रदायक धन धान्य देहि देहि श्रीं नमो नमः।। (विद्या एवं धन प्राप्ति का महामंत्र)
        विद्या प्राप्ति हेतु गायत्री यंत्र पर प्रयोग -
        भारत का प्रत्येक आस्तिक वर्ग जीवन के किसी न किसी कालखण्ड में गायत्री मंत्र एवं यंत्र की उपासना अवष्य संपन्न करता है। गायत्री मंत्र में परमब्रह्म परमेश्वर के सभी स्वरूप समाहित हैं। यह प्रथम वैदिक मंत्र है, जिसके माध्यम से हमारे आर्य ऋषियों ने किसी पिंड में मौजूद पराब्रह्माण्डीय शक्ति की सत्ता का स्तवन किया था। आखिर सूर्य में ताप कहाँ से आता है, निश्चित ही उसके पीछे पराब्रह्माण्डीय महाशक्ति होगी। सविता देव की इस शक्ति को उन्होंने सावित्री नाम रखा। इस प्रकार सूर्य के माध्यम से आदिशक्ति की उपासना संपन्न हुई।
बालकों में बुद्धि विकास हेतु - गायत्री मंत्र बुद्धि विकास हेतु ब्रह्मास्त्र है। एक गणेश रूद्राक्ष को गायत्री यंत्र के ऊपर रखें एवं तीन दिनों में 1100 बार मूल गायत्री मंत्र "ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।"  का जप करें। इसके बाद गणेश  रूद्राक्ष के ऊपर प्रतिदिन एक लालपुष्प (विषेशकर गुलाब का) अर्पित करते हुए गणेश गायत्री मंत्र "ॐ  एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो बुद्धि प्रचोदयात्।" मंत्र का 1100 बार जप तीन दिन के अंदर संपन्न कर लें। जिस बालक के गले में यह रूद्राक्ष होगा, उसका बुद्धि पक्ष अत्यधिक विकसित हो जाएगा एवं शिक्षा से उसका समस्त प्रकार का उच्चाटन सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।
        हकलाहट एवं अशुद्ध उच्चारण निवारण हेतु -
कुछ लोगों में वाणी दोष होते हैं। बोलते-बोलते अटक जाना, अषुद्ध उच्चारण करना, भूल जाना आमतौर पर देखा जाता है। ऐसे लोगों के समस्या निवारण हेतु 3 तीन मुखी रूद्राक्ष प्राण- प्रतिष्ठित  गायत्री यंत्र पर स्थापित करना चाहिए एवं ब्रह्म मुहूर्त में उठकर लगातार तीन दिन के भीतर 1100 बार वैदिक गायत्री मंत्र श्"ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।"  का जप कर लेना चाहिए। तत्पश्चात आने वाले तीन दिनों में उन्हें स्फटिक माला से सरस्वती गायत्री मंत्र "ॐ सरस्वत्यै च विद्महे, ब्रह्मपुत्रयै च धीमहि। तन्नो वाणि प्रचोदयात्।" का 1100 बार जप कर लेना चाहिए। प्रत्येक एक माला जप के पश्चात मिश्री मिश्रित शुद्ध जल की एक आचमनी रूद्राक्षों के ऊपर अर्पित कर देनी चाहिए। जप समाप्त होने के पश्चात तीनों तीन मुखी रूद्राक्षों को चांदी में मढ़वाकर कंठ में धारण कर लें। इस प्रकार कुछ ही दिनों में आपका वाणी दोष  सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।
वाणी दोश निवारण हेतु एक अन्य प्रयोग -
पीछे के पृष्ठों में मैंने जो 5 वाँ सरस्वती मंत्र लिखा है, स्फटिक माला से एक 6 मुखी रूद्राक्ष सामने रख कर 1100 बार या 2100 बार जप कर किसी भी धागे में अथवा चेन में धारण कर लें। फिर जितना अधिक से अधिक हो सके इस मंत्र का जप करें। कम से कम 27 बार  अवष्य करें, तो स्वर विकार से मुक्ति मिलती है।

श्री सरस्वती अष्टोत्तरशत नामावली
(माता सरस्वती के 108 नाम)
 
1.      सरस्वत्यै नमः।
2.      महाभद्रायै नमः।
3.      महामायायै नमः।
4.      वरप्रदायै नमः।
5.      श्री प्रदायै नमः।
6.      पद्मनिलयायै नमः।
7.      पद्माक्ष्यै नमः।
8.      पद्मवक्त्रायै नमः।
9.      शिवानुजायै नमः।
10.     पुस्तकभृते नमः।
11.     ज्ञानमुद्रायै नमः।
12.     रमायै नमः।
13.     परायै नमः।
14.     कामरूपायै नमः।
15.     महाविद्यायै नमः।
16.     महापातकनाशिन्यै नमः।
17.     महाश्रयायै नमः।
18.     मालिन्यै नमः।
19.     महाभोगायै नमः।
20.     महाभुजायै नमः।
21.     महाभागायै नमः।
22.     महोत्साहायै नमः।
23.     दिव्यांगायै नमः।
24.     सुरवन्दितायै नमः।
25.     महाकाल्यै नमः।
26.     महापाषायै नमः।
27.     महाकारायै नमः।
28.     महांकुशायै नमः।
29.     पीतायै नमः।
30.     विमलायै नमः।
31.     विश्वायै नमः।
32.     विद्युन्मालायै नमः।
33.     वैष्णव्यै नमः।
34.     चन्द्रिकायै नमः।
35.     चन्द्रवदनायै नमः।
36.     चन्द्रलेखाविभूषितायै नमः।
37.     सावित्र्यै नमः।
38.     सुरसायै नमः।
39.     देव्यै नमः।
40.     दिव्यलंकारभूषितायै नमः।
41.     वाग्देव्यै नमः।
42.     वसुधायै नमः।
43.     तीव्रायै नमः।
44.     महाभद्रायै नमः।
45.     महाबलायै नमः।
46.     भोगदायै नमः।
47.     भारत्यै नमः।
48.     भामायै नमः।
49.     गोविन्दायै नमः।
50.     गोमत्यै नमः।
51.     शिवायै नमः।
52.     जटिलायै नमः।
53.     विन्ध्यवासायै नमः।
54.     विन्ध्याचलविराजितायै नमः।
55.     चण्डिकायै नमः।
56.     वैष्णव्यै नमः।
57.     ब्राह्मयै नमः।
58.     ब्रह्मज्ञानैकसाधनायै नमः।
59.     सौदामिन्यै नमः।
60.     सुधामूर्तये नमः।
61.     सुभद्रायै नमः।
62.     सुरपूजितायै नमः।
63.     सुवासिन्यै नमः।
64.     सुनासायै नमः।
65.     विनिद्रायै नमः।
66.     पद्मलोचनायै नमः।
67.     विद्यारूपायै नमः।
68.     विशालाक्ष्यै नमः।
69.     ब्रह्मजायायै नमः।
70.     महाफलायै नमः।
71.     त्रयीमूर्तये नमः।।
72.     त्रिकालज्ञायै नमः।
73.     त्रिगुणायै नमः।
74.     शास्त्ररूपिण्यै नमः।
75.     शुम्भासुरप्रमथिन्यै नमः।
76.     षुभदायै नमः।
77.     स्वरात्मिकायै नमः।
78.     रक्तबीजनिहन्त्र्यै नमः।
79.     चामुण्डायै नमः।
80.     अम्बिकायै नमः।
81.     मुण्डकायप्रहरणायै नमः।
82.     धूम्रलोचनमर्दनायै नमः।
83.     सर्वदेवस्तुतायै नमः।
84.     सौम्यायै नमः।
85.     सुरासुरनमस्कृतायै नमः।
86.     कालरात्र्यै नमः।
87.     कलाधारायै नमः।
88.     रूपसौभाग्यदायिन्यै नमः।
89.     वाग्देव्यै नमः।
90.     वरारोहायै नमः।
91.     वाराह्यै नमः।
92.     वारिजासनायै नमः।
93.     चित्राम्बरायै नमः।
94.     चित्रगन्धायै नमः।
95.     चित्रमाल्यविभूशितायै नमः।
96.     कान्तायै नमः।
97.     कामप्रदायै नमः।
98.     वन्द्यायै नमः।
99.     विद्याधरसुपूजितायै नमः।
100.    श्वेताननायै नमः।
101.    नीलभुजायै नमः।
102.    चतुर्वर्गफलप्रदायै नमः।
103.     चतुराननसाम्राज्यायै नमः।
104.    रक्तमध्यायै नमः।
105.    निरंजनायै नमः।
106.    हंसासनायै नमः।
107.    नीलजंघायै नमः।
108.    ब्रह्मविष्णुशिवान्मिकायै नमः।
 
श्री सरस्वती कवचम
(विश्वविजय कवच)

श्रीब्रह्मवैवर्त-पुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय ४ में मुनिवर भगवान् नारायण ने मुनिवर नारदजी को बतलाया कि विप्रेन्द्र ! सरस्वती का कवच विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे इन्हें बताया था।
।।ब्रह्मोवाच।।
श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्। श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्।।
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वमे। रासेश्वरेण विभुना वै रासमण्डले।।
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्। अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम्।।
यद् धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः। यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पति।।
पठणाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः। स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद् धृत्वा सर्वपूजितः।।
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनीः शाकटायनः। ग्रन्थं चकार यद् धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम्।।
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च। चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम्।।
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः। यद् धृत्वा पठनाद् ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः।।
ऋष्यश्रृंगो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा। जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद् धृत्वा सर्वपूजिताः।।
कचवस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः। स्वयं च बृहतीच्छन्दो देवता शारदाम्बिका।।१
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च। कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः।।२
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः। श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।३
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम्। ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।४
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु। ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।५
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदावतु। ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।६
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु। ॐ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु।।७
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्। ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु।।८
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु। ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै सर्व सदावतु।।९
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु। ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।१०
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा। सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।११
ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु। कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।१२
ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु। ॐ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु।।१३
ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु। ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु।।१४
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु। ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु।।१५

इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम्। इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरुपकम्।।
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात् पर्वते गन्धमादने। तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः। प्रणम्य दण्डवद् भूमौ कवचं धारयेत् सुधीः।।
पञ्चलक्षजपैनैव सिद्धं तु कवचं भवेत्। यदि स्यात् सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत्।।
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्। शक्नोति सर्वे जेतुं स कवचस्य प्रसादतः।।
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने। स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा।।
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते ध्यानमन्त्रसहितं विश्वविजय-सरस्वतीकवचं सम्पूर्णम्।।
(
प्रकृतिखण्ड ४।६३-९१)

 

भावार्थः- ब्रह्माजी बोले - वत्स ! मैं सम्पूर्ण कामना पूर्ण करने वाला कवच कहता हूँ, सुनो ! यह श्रुतियों का सार, कान के लिये सुखप्रद, वेदों में प्रतिपादित एवं उनसे अनुमादित है। रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में विराजमान थे। वहीं वृन्दावन में रासमण्डल था। रास के अवसर पर उन प्रभु ने मुझे यह कवच सुनाया था।
कल्प-वृक्ष की तुलना करने वाला यह कवच परम गोपनीय है। जिन्हें किसी ने नहीं सुना, वे अद्भुत मन्त्र इसमें सम्मिलित हैं। इसे धारण करने के प्रभाव से ही भगवान् शुक्राचार्य सम्पूर्ण दैत्यों के पूज्य बन सके। ब्रह्मन् ! बृहस्पति में इतनी बुद्धि का समावेश इस कवच की महिमा से ही हुआ है। वाल्मीकि मुनि सदा इसका पाठ और सरस्वती का ध्यान करते हैं। अतः उन्हें कवीन्द्र कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। वे भाषण करने में परम चतुर हो गये। इसे धारण करके स्वायम्भुव मनु ने सबसे पूजा प्राप्त की। कणाद, गौतम, कण्व, पाणिनी, शाकटायन, दक्ष और कात्यायन इस कवच को धारण करके ही ग्रन्थों की रचना में सफल हुए। इसे धारण करके स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यासदेव ने वेदों का प्रणयन किया। शातातप, संवर्त, वशिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य, ऋष्यश्रृंग, भारद्वाज, आस्तीक, देवल, जैगीषव्य और जाबालि ने इस कवच को धारण करके सबमें पूजित हो ग्रन्थों की रचना की थी।

विप्रेन्द्र ! इस कवच के ऋषि प्रजापति हैं। स्वयं वृहती छन्द है। माता शारदा अधिष्ठात्री देवी है। अखिल तत्त्व-परिज्ञान-पूर्वक सम्पूर्ण अर्थ के साधन तथा समस्त कविताओं के प्रणयन एवं विवेचन में इसका प्रयोग किया जाता है।
श्रीं-ह्रीं-स्वरुपिणी भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें। ॐ श्रीं वाग्देवता के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे ललाट की रक्षा करें। ॐ ह्रीं भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे निरन्तर कानों की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भारती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे दोनों नेत्रों की रक्षा करें। ऐं ह्रीं स्वरुपिणी वाग्वादिनी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करें। ॐ ह्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे होठ की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भगवती ब्राह्मी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दन्त-पङ्क्ति की निरन्तर रक्षा करें। ऐंयह देवी सरस्वती का एकाक्षर मन्त्र मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं मेरे गले की तथा श्रीं मेरे कंधों की सदा रक्षा करें। ॐ श्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा वक्षःस्थल की रक्षा करें। ॐ ह्रीम विद्या-स्वरुपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरी नाभि की रक्षा करें। ॐ ह्रीं क्लीं-स्वरुपिणी देवी वाणी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे हाथों की रक्षा करें। ॐ स्वरुपिणी भगवती सर्व-वर्णात्मिका के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दोनों पैरों को सुरक्षित रखें। ॐ वाग् की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे सर्वस्व की रक्षा करें। सबके कण्ठ में निवास करने वाली ॐ स्वरुपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पूर्व दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। जीभ के अग्र-भाग पर विराजने वाली ॐ ह्रीं-स्वरुपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे अग्निकोण में रक्षा करें। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।इसको मन्त्रराज कहते हैं। यह इसी रुप में सदा विराजमान रहता है। यह निरन्तर मेरे दक्षिण भाग की रक्षा करें। ऐं ह्रीं श्रीं यह त्र्यक्षर मन्त्र नैर्ऋत्यकोण में सदा मेरी रक्षा करे। कवि की जिह्वा के अग्रभाग पर रहनेवाली ॐ-स्वरुपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे वायव्य-कोण में सदा मेरी रक्षा करें। गद्य-पद्य में निवास करने वाली ॐ ऐं श्रींमयी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें। सम्पूर्ण शास्त्रों में विराजने वाली ऐं-स्वरुपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ईशान-कोण में सदा मेरी रक्षा करें। ॐ ह्रीं-स्वरुपिणी सर्वपूजिता देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ऊपर से मेरी रक्षा करें। पुस्तक में निवास करने वाली ऐं ह्रीं-स्वरुपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे निम्न भाग की रक्षा करें। ॐ स्वरुपिणी ग्रन्थ-बीज-स्वरुपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी रक्षा करें।


विप्र ! यह सरस्वती-कवच तुम्हें सुना दिया । असंख्य ब्रह्ममन्त्रों का यह मूर्तिमान् विग्रह है। ब्रह्मस्वरुप इस कवच को विश्वजयकहते हैं। प्राचीन समय की बात है- गन्धमादन पर्वत पर पिता धर्मदेव के मुख से मुझे इसे सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। तुम मेरे परम प्रिय हो। अतएव तुमसे मैंने  कहा है। तुम्हें अन्य किसी के सामने इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वस्त्र, चन्दन और अलंकार आदि सामानों से विधि-पूर्वक गुरु की पूजा करके दण्ड की भाँति जमीन पर पड़कर उन्हें प्रणाम करे। तत्पश्चात् उनसे इस कवच का अध्ययन करके इसे हृदय में धारण करे। पाँच लाख जप करने के पश्चात् वह कवच सिद्ध हो जाता है। इस कवच के सिद्ध हो जाने पर पुरुष को बृहस्पति के समान पूर्ण योग्यता प्राप्त हो सकती है। इस कवच के प्रसाद से पुरुष भाषण करने में परम चतुर, कवियों का सम्राट् और त्रैलोक्य-विजयी हो सकता है। वह सबको जीतने में समर्थ होता है। मुने ! यह कवच कण्व-शाखा के अन्तर्गत है।

                                                 -----अभिषेक कुमार


(विद्यार्थी जीवन में पूजा करतेहु एवं भक्ति में लीन श्री अभिषेक कुमार)

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1 Comments

  1. Sir i want to get a neel saraswati kavach, in form of locket.

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