यह राम
कौन हैं : मैं न जिऊँ बिन राम
पूजन की संपूर्णता
पूजा से होती है। पूजा करने में यदि कोई अभाव रह जाता है, तो उसे परिक्रमा कर लेने से पूर्ण मान
लेते हैं। यानि कानि पापानि......नश्यन्ति प्रदक्षिणां पदे पदे। पूज्य महाराज श्री
द्वारिकाधीश्वर पीठाधीश्वर आदि शंकराचार्य के परावतार स्वामी श्री स्वरूपानंद
सरस्वती जी ने नवम्बर 2006 में राम जन्मभूमि की परिक्रमा करने की उद्घोषणा की तो
पूरे राष्ट्र में एक खलबली सी मची। किसी ने उसे किसी राजनीतिक पार्टी की नई चाल
समझा तो किसी ने राजनीति से उकताए और धर्म की लगातार अवमानना से क्षुब्ध संत समाज
का आक्रोश बताया। किसी और मंदिर की परिक्रमा करने की बात होती तो शायद बात इतनी
तेजी से न फैलती। राम जन्मभूमि के मुद्दे पर यह खबर खर-पतवार में लगी आग की तरह
तेजी से यहाँ से वहाँ तक फैलती चली गयी। मेरे मन में सोए राम ने भी अंगड़ाई लेते
हुए आँखंे खोल दी। मैंने मन से पूछा आखिर ये राम कौन हैं, जो इतने विवादित भी हैं और निर्विवादित
सत्य की पहचान भी। कोई रोम-रोम से छटककर अलग करने पर तुला है तो किसी की साँस उसी
के नाम पर उठती-गिरती है।
क्रौंच वध से
उद्वेलित महर्षि वाल्मीकी को देववाणी हुई
कि रामकथा लिखो तो दूसरी ओर सनातन मान्यता के अनुसार पूरा युग राम के नाम हो गया।
उस युग में ब्रह्मस्वरूप राम ने नर लीला की। तरह-तरह के संघर्ष किए, राक्षसों का वध और स्वराज की स्थापना की।
अपने युग से आज तक उनकी लीला अनवरत चल रही है। गली-मोहल्लों से लेकर गाँव, शहर, सिनेमा और अंतरर्राष्ट्रीय महोत्सवों तक। स्थूल से लेकर
सूक्ष्म तक, जीवन से लेकर मरण
तक। न जाने कैसा है यह राम तत्व जो इतने विवादों, अस्वीकारों के बाद भी और गहराई से जड़ें
जमाता जाता है। इतनी गहरी कि विरोधियों को भी उसे उखाड़ने के प्रयास में झुकना ही
पड़ता है। वैसे भी किसी वस्तु को समूल उखाड़ने के लिए पहले उसके सामने झुकना ही पड़ता
है और झुकते ही न जाने कौन-सा जादू होता है कि आदमी बिछ जाता है राम के चरणों में।
स्थूल काया नतमस्तक हो न हो, लेकिन अंतरआत्मा नतमस्तक हो जाती है। पृथ्वी की तरह उनका
गुरुत्वाकर्षण अपनी ओर खींच ही लेता है। हर युग की प्रजा के साथ राजाओं-महाराजाओं
को अपनी ओर खींचा राम तत्व ने।
तुलसी बाबा लाख
विसंगतियों के बीच भी राम के दास बने फिरते रहे और चित्रकूट के घाट पर उन्हीं के
द्वारा घिसे चंदन का तिलक लगाकर रघुवीर ने उन्हें संतों और विद्वानों के तारामंडल
में चंद्रमा की तरह सजाकर रख दिया। तुलसी बाबा की तरह ही कबीर आए। एक स्वर में
उन्होंने ललकारा हिंदुओं को पाखंड के लिए तो मुसलमानों को कट्टरता के लिए। किसी ने
बुरा नहीं माना, बल्कि मृत्यु के
बाद उनके पार्थिव शरीर को लेकर दोनों वर्गों के शिष्यों में झगड़ा-टंटा अवश्य हुआ।
उन निर्गुनिया कबीर को भी पी के रूप में राम ही भा गए। राम की बहुरिया बन पूर्णता
प्राप्त की उन्होंने। उन्होंने ‘फूटा कुंभ जल जल ही समाना’ के द्वारा आत्मा-परमात्मा, जीव और ब्रह्म का अद्वैत स्थापित किया। ‘कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढे वनमाहिं, ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।’ वस्तुतः कबीर के लिए राम परब्रह्म के
पर्याय हैं। इसे पौराणिक काल का प्रभाव कहा जा सकता है, क्योंकि पुराणों में परब्रह्म के अवतार
के रूप में राम की प्रतिष्ठा हुई है। ‘आध्यात्म रामायण’ के अनुसार जिसमें सभी देवता रमण करें, यानि परमशक्ति, एक सत्य, वही राम है।
ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी द्वारा संवत 2020 (वसंत पंचमी) में प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य कोश’ में राम और रामकथा साहित्य के विकास की
एक विस्तृत व्याख्या की गयी है। इसके अनुसार वैदिक काल के पश्चात् संभवतः छठी
शताब्दी ईसा पूर्व में इक्ष्वाकु वंश के सूत्रों के द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं के
आधार पर रामकथा विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी थी। आदि कवि महर्षि वाल्मीकी ने
इन आख्यानों के आधार पर एक विस्तृत प्रबंध काव्य की रचाना की। अवतारवाद की भावना
सर्वप्रथम ‘शतपथ ब्राह्मण’ में दिखाई पड़ती है।
आगे चलकर रामकथा
की लोकप्रियता को ध्यान में रखकर बौद्धों और जैनियों ने भी अपने-अपने धर्म में इसे
महत्वपूर्ण स्थान दिया है। बौद्ध धर्म में दशरथ जातकम, अनामकं जातकम् तथा दशरथ कथानकम् जैसे
जातक साहित्य में राम को बोधिसत्व मानकर रामकथा को स्थापित किया गया। जैन धर्म में
बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक समय तक रामकथा की लोकप्रियता परिलक्षित होती है। विमल
सूरी ने सर्वप्रथम इस्वी सन् की तीसरी शताब्दी में प्राकृत भाषा में ‘पउम चरिय’ लिखा। बाद में इसका संस्कृत रूपांतरण ‘पद्मचरित’ नाम से विख्यात हुआ। हेमचंद्र कृत ‘जैन रामायण, जिनदास कृत राम पुराण, कन्नड़ भाषामें नागचंद्र कृत पम्प रामायण, देवप्प कृत राम विजय चरित आदि साहित्य
प्रतिष्ठित हुए। राम चरित को लेकर संस्कृत, प्राकृत तथा कन्नड़ में अनेक ग्रंथों की
रचना हुई। उत्तर से लेकर दक्षिण तक,पूर्व से लेकर पश्चिम तक अनेक भाषाओं में रामकथा विषयक
प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य उपलब्ध होता है। विदेशों में रामकथा का का प्रसार
बौद्धों द्वारा भी हुआ। ‘अनामकं जातकम्’ तथा दशरथ कथानकम का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। उसके बाद
संभवतः आठवीं शताब्दी ईस्वी में तिब्बती रामायण की रचना हुई। खोतानी रामायण का काल
निर्धारण लगभग नवीं शताब्दी ईस्वी का है और यह पूर्वी तुर्किस्तान से संबद्ध है।
कंबोडिया में रामकेति (16वीं शताब्दी इस्वी) तथा ब्रह्मदेश में यू टो ने राम यागन
की रचना हुई, जो एक महत्वपूर्ण
काव्यग्रंथ माना जाता है। स्पष्ट है कि विश्व साहित्य के इतिहास में ऐसा अन्य कोई
चरित्र दिखाई नहीं पड़ता, जो वैश्विक स्तर पर जनमानस से लेकर साहित्य तक को
आच्छादित कर सके। राम और उनका उत्कर्ष आज तक वैसे ही अक्षुण्ण है।
राम के विराट रूप
को पूर्णतया देख सकने में असमर्थ आँखें झिप जाती हैं। झिपती हैं तो पुनः अपने
आस-पास देखने का व्यापार शुरू हो जाता है। 40 वर्ष पहले के अपने बचपन की स्मृति में
रामलीला शुरू हो जाती है। शाम से ही खाना जल्दी बनाकर ताई जी की छत से रामलीला
देखने की माँ की हड़बड़ी और हमारा उल्लास आज के चाकचिक वाले डिब्बानुमा यंत्र में
कहीं खो गया है, लेकिन उस डिब्बे
का भी काम रामलीला के बिना नहीं चलता। माँ ताई जी की छत पर अपनी संगिनियों के साथ
बैठ जातीं और हम बच्चे रामलीला मंच के आगे भूमि पर आसपास पड़ी ईट को पीढ़ा बनाकर बैठ
जाते। एकटक मुँह खोले उत्सुकता से फुलवारी, धनुष यज्ञ, स्वयंवर, दशरथ विलाप, वनवास से लेकर रावण वध और अयोध्या तक
लौटने का प्रसंग प्रतिदिन किसी नेमी धर्मी गंगा स्नानार्थी की तरह देखा करते।
उनमें से ही राम सीता बने बच्चे कुछ विशेष हो उठते। चमकीली या गेरुआ पोशाक पहने, सिर पर नकली ही सही, चमकता मुकुट, चेहरे का साज-संवार हमें लुभाता। राम
बनकर सबका दिल जीत लेने की इच्छा मन में अंगड़ाई लेती, लेकिन राम तो कोई एक ही बन सकता है।
समूचे गाँव, कस्बे या मोहल्ले
के बच्चे तो राम बनकर मंच पर नहीं उतर सकते। मन मसोसकर रह जाता।
.......
वह मसोस आज तक
जारी है। हम राम बनना चाहते हैं, लेकिन कहाँ से लाएं, वह विराट स्वरूप, हृदय की वह विशालता। राम को अंतस में
उतार ही लें, तो काम सध जाए, लेकिन भीतर के अंधेरे में वह श्यामलता
फिसल-फिसल जाती है। राम की तरह राजपाट छोड़ने के नाम पर अकिंचन हो हम बिसूरने लगते
हैं। क्या है हमारे पास। एक मैं तो छूटता नहीं, धन-जन की बात क्या। उसी मैं का साम्राज्य
लिए जीवन भर भटकता मन अंत में राम की शरण में आता है। राम स्वयं न स्वीकारें, उस मैं के साम्राज्य को, तो अपनी चरण रज ही दे दें। उससे भी यह
साम्राज्य नियंत्रित हो लेगा।
कभी-कभी सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है।
साम्राज्य हथियाने के नाम पर नाना प्रकार के कपट, छल, छुरा भोंकने का इतिहास और वर्तमान सामने
है। ऐसे में किसी कालखंड के साम्राज्य में एक जोड़ी खड़ाउं ने 14 वर्षों तक शासन किया हो, प्रजा मंे कहींसे असंतोष या छल-छद्म की
एक चिंगारी भी न फूटी हो, यह विस्मित करने वाली घटना है। यह बात पृथक है कि
परवर्ती और आधुनिक युग में उसी सुशासन के नाम पर, उसकी सत्यता और उस सत्य को भेदने के
चक्कर में कई-कई ज्वालामुखी फोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन वह अपनी ही हवा में चकरघिन्नी की
तरह उड़कर शीतल लावा बन बह जाता है। सत्ता के गलियारों और धर्म नेताओं के नारों से
परे केवल लेखकर वर्ग के बीच ऐसे ही न जाने कितने तथाकथित ज्वालामुखियों से वास्ता
पड़ता रहता है। नासा के वैज्ञानिकों ने श्रीराम सेतु का अंतरिक्ष से चित्र लिया और
अपनी परख के बाद उसे लगभग 17 लाख वर्ष पुराना घोषित किया। एक वक्री पथिक लेखक ने
तुरंत अपनी दृष्टि प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए एक दैनिक अखबार में लेख लिखा
कि यह सेतु राम के द्वारा निर्मित नहीं, बल्कि समुद्र के भीतर की भौगोलिक संरचना का परिणाम है।
मानो पीढ़ियों से वो राम के खानदान के पट्टीदार रहे हैं और आज उनके अस्तित्व को
खारिज करने का सुनहरा मौका हाथ लग गया है।
वामपंथ का झोला
ढोने वाले एक ऐसे ही देव तुल्य देवनाम मेरे घर आए। छिड़ते-छिड़ते चर्चा राम पर टिकनी
थी, सो टिक गई। आरएसएस के राम और विहिप के
राम का निंदा पुराण शुरू हुआ। मैंने विनम्रतापूर्वक दोनों ही संगठनों के हाथों से
राम नाम की गठरी छीनकर उनके हाथों में थमाने की कोशिश की। ‘छोड़िए देवता, लीजिए ये रहे आपके राम। अब तो मानेंगे।
उन्हें अपने हाथों में थमे आधुनिक हल्के झोले की चिंता हुई। इसे छोड़ राम नाम की
इतनी भारी गठरी कैसे संभालें। फिर आगे चलने वाले उनके झंडाबरदार, कितनी लानत-मलामत भेजेंगे उनके नाम। तपाक
से उनका बचकाना तर्क गूंजा-क्या प्रमाण है कि इसी अयोध्या में राम का जन्म हुआ था।
मैं उनके भी जन्म पर सशंकित होते हुए बस इतना ही कह सकी कि विश्व में कहीं भी सरयू
के किनारे अयोध्या का भूगोल आपने पढ़ा हो, तो चलिए वहीं के लिए राम जन्मभूमि का दावा ठोक दें।
निरुत्तर से कुछ देर वे इधर-उधर देखते रहे और बड़ी उपेक्षा से अपने शास्त्रीय ज्ञान
की अल्पज्ञता प्रकट की। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिन्हें ग्रंथों से इतनी अरुचि है, वे खंडन-मंडन के शास्त्रार्थ में
दिलचस्पी क्यों लेते हैं। राम को ही खारिज करने की इतनी उठा-पटक क्यों! दूसरे धर्म
प्रवर्तकों की क्यों नहीं। फिर एक बार खारिज कर दिया तो कर दिया, बार-बार उस पर हाय तौबा, चीखना-चिल्लाना जारी रखने का क्या मतलब।
एक चिरनवीन स्मृति की तरह राम बार-बार क्यों कौंध उठते हैं। एक दुःखद घटना के
उदाहरण से ही संपुष्टि कर देती हूँ। एक वरिष्ठ जनवादी आलोचक के युवा पुत्र का असमय
निधन हो गया। अर्थी उठाकर लोग चलने लगे तो दुःख के कारण किसी के कोई बोल नहीं
फूटे। एकाएक बिलखते हुए पिता ने कंधा देते दूसरे लोगों से कहा, ‘अरे राम नाम तो बोलो, और स्वयं फूट-फूट कर रोने लगे।
हर ऐसी घटना के बाद मन में यही आकुलता
होती है-आखिर यह राम कौन है। क्यों इनके बिना जीवन, जीवन नहीं होता। मरण अनंत यात्रा का
द्वार नहीं बन पाता।
अभी हाल ही में एक
समाचार पढ़ने को मिला। जौनपुर जिले में कुछ
लोगों को बहला-फुसला कर धर्मान्तरित किया गया और अनुष्ठान के रूप में राम, विष्णु आदि के चित्र कुएं में डलवाए गए।
राम के चित्र के साथ उनके अस्तित्व को भी कुएं में डुबोने की बचकानी कोशिशों पर
हंसी आई। पत्थर को अपने स्पर्श से तार देने वाले राम, समुद्र में अपने प्रताप से बड़ी-बड़ी
शिलाओं को तैरा देने वाले राम, सागर को सोख लेने, वन्य जीव-जंतुओं को वश में करके संगठित
करने वाले राम और भी न जाने कितने अद्भुत कारनामों से मिथक बने राम के चित्र को उन
लोगों ने अपने हिसाब से कुएं में डुबो देने का काम किया और सोचा कि अब उनका स्मरण
भी कोई नहीं कर पाएगा। इस तरह अपनी स्मृति को भी कुएं में डुबो देने का व्यापार
हुआ ताकि अंधे कुएं से राम की स्मृति भी बाहर न आ सके। स्मृति समाप्त- राम समाप्त
यानी राम को समाप्त करने के लिए अपनी स्मृति को पहले समाप्त करना होता है। स्मृति
यानी मस्तिष्क का वह महत्वपूर्ण कोना जिससे हम होते हैं, संसार से नाता होता है, नाते-रिश्तेदार होते हैं और होता है
हमारा जीवन चक्र। उसी स्मृति के नष्ट होते ही सब कुछ पार्थिव हो जाता है।
एक कथा याद आती
है। एक असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति डॉक्टर के पास गया। बड़े विश्वास के साथ आए उस
रोगी को देखकर डॉक्टर दुविधा में पड़ गया। कैसे कहें कि असाध्य रोग ठीक नहीं होगा
और यह भी कैसा होगा कि उसका विश्वास एक झटके में तोड़ दें। अंततः डॉक्टर ने कुछ
दवाइयाँ लिखीं और परहेज में दवा खाते समय शेर की याद न करने का मशविरा दिया।
परिणाम हुआ कि हर दिन दवा खाते समय परहेज के साथ शेर का स्मरण होने ही लगा। इस तरह
परहेज करने वालों के लिए दुर्निवार हो उठते हैं राम! झुठलाने और मिथ्या साबित करने
की तमाम कोशिशें अपने आप खारिज होती जाती हैं। यह तो परहेजी लोगों के राम की
दुर्निवार स्मृति है।
भारत में एक बड़ा
वर्ग अपने नाम के आगे बड़े गर्व से राम जोड़ता है। रामअवतार, रामधारी, रामवचन, रामदास, रामउजागर, रामदुलार, रामसागर जैसे अनेक नामों में यदि राम
पहले ही जुड़ जाते हैं तो बाद में जाति के जुड़ने की गुंजाइश बनी रहती है। लेकिन नाम
के बाद राम की उपस्थिति इन सारी कृत्रिमताओं को परे धकेल देती है। गांव की जोखू
कक्का बो अक्सार अपने पति को याद करते हुए बतातीं-हमरे राम परेदस गए हैं, कमाए खातिर’ और बताते-बताते आंखें पनीली हो उठतीं, जिन्हें चुपके से वो साड़ी के कोर से पोछ
लेतीं। मैं मुठ्ठी भर उन अत्याधुनिक महिलाओं की बात नहीं करती, जिनके पति उनके लिए राम नहीं, बल्कि हसबैंड से भी आगे पार्टनर हो गए
हैं अथवा उन दुखियारी महिलाओं की भी बातें नहीं करती, जिनके राम रावण से भी बदतर आचरण करने लगे
हैं, लेकिन अधिकांश मध्य एवं निम्न मध्यवर्गीय
तथा अनाधुनिक भारतीय स्त्रियों के लिए पति राम होते हैं। अपने श्रद्धेय बप्पा
(ससुर जी) के निधन के उपरांत सबकी कोशिश यही रहती है कि अम्मा (सासू माँ) अकेलापन
न महसूस करने पाएं। इसलिए बारी-बारी से कोई न कोई उनके आसपास बना रहता। एक दिन
अम्मा चारपाई पर लेटे-लेटे आकाश की ओर निर्निमेष देख रही थीं। हमारी उपस्थिति से
बेखबर उनके होठ भजन गुनगुना रहे थे-‘जलि जाए इ देहियां राम बिन।’ हमारी आँखें छलछला आई थी। राम के बिना
जीवन के व्यर्थता का बोध का यह सहज उद्घाटन क्या किसी शास्त्रीय ज्ञान या
वाद-विवाद का मुखापेक्षी है। पति यानी राम, राम यानी जीवन, प्राणशक्ति, जिसके बिना इस जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
कोई कह सकता है कि यह सत्य केवल भारतीय नारी का सत्य है, पश्चिमी नारी का नहीं। मेरी भी अस्वीकृति
नहीं है, इससे। राम भी तो हर उस मन का सत्य है, जो भारतीय है, भारत से जुड़ाव रखता है। इसलिए शास्त्रों
और मंत्रों से परे अपढ़ जन भी ‘रामहि राम रटन करु जीभिया रे’ गुनगुनाता है। जन-जन की जिह्वा पर बसे
राम, जन-जन के प्राण राम, जिनके लिए भरत के मुख से भी निकल जाता है, ‘जननी मैं न जिऊं बिन राम।’
राम केवल राजा
होते, न्यायी होते, सदाचारी होते, धर्म प्रवर्तक होते, तो शायद इतिहास के इतने लंबे अंतराल को
पार कर उनकी स्मृति भी अन्य राजाओं, महाराजाओं या न्यायप्रिय सदाचारियों, धर्माचार्यों की तरह आज तक क्षीण हो चुकी
होती। मात्र इतिहास बनकर रह गए होते वे भी, लेकिन राम इतिहास नहीं हैं। हर पलांत के
वर्तमान हैं, मानवमात्र की
जीवनी शक्ति हैं वे। धर्म का कोई अपना पंथ न चलाते हुए भी धर्म का आदि और अंत बने
हैं। स्थूल रूप में अपने युग में नरलीला करते हुए भी अतीत नहीं हैं, वर्तमान हैं। हर प्राणी के संग हैं, प्राण हैं, इसलिए झुठलाए नहीं जा सकते। अपनी ही
पहचान, हमारे राम की पहचान है। जब तक हम स्वयं
को जानने का प्रयास नहीं करते, तब तक राम भी हमसे अपरिचित बने मुस्कुराते रहते हैं।
ज्योंहि हमारा स्वयं से परिचय होना शुरू होता है, वे हमारे हो जाते हैं और हम उनके। कहीं
कोई भेद शेष नहीं रहता। यह अभेद ही राम है। रामभाव का जागृत होना ही राम का भव्य
मंदिर बनने का प्रारंभ है।
--- नीरजा माधव (यह राम कौन हैं-पुस्तक की लेखिका)
श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत
नृत्य गोपालदास के हाथों अयोध्या में एक वर्ष पूर्व लोकार्पित हुई थी लेखिका की
बहुचर्चित पुस्तक ‘यह राम कौन हैं?’ - यहाँ उसी पुस्तक का कुछ अंश प्रस्तुत
किया गया है।
नोट :- लेखिका के द्वारा लिखा गया यह लेख मुझे बहुत अच्छा लगा. इसलिए
मैंने अपने सभी पाठकों को भगवान् राम पर लिखी गयी यह अनमोल रचना बार-बार पढने हेतु
अपने ब्लॉग पर शामिल करना उचित समझा और इसे टाइप करके ज्यों का त्यों यहाँ रख
दिया. यह लेख दैनिक जागरण समाचार पत्र में दिनांक 11 नवम्बर २०१९ (सोमवार) के अंक
में प्रकाशित हुआ था.
मेरे द्वारा किया गया यह कार्य आपको कैसा लगा, कृपा कर अपने
महत्वपूर्ण विचारों से जरुर अवगत करायेंगे.
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