-: माता ही प्रथम गुरु है :-
एक युवक को फांसी हो रही थी। जज ने उसे डकैती, सामूहिक नरसंहार एवं अनेक बलात्कार करने के जुर्म में यह
सजा सुनाई थी। फांसी के एक दिन पहले उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई। उस युवक ने अपनी
माँ से मिलने की इच्छा जाहिर की। जेलर के आदेश पर आनन-फानन में एक सिपाही उसके दिए
हुए पते पर उसके गाँव गया और युवक की माँ को लिवा लाया। फांसी के एक घंटे पहले माँ
का बेटे से मिलन संभव हुआ। फाँसी का तख्त सजा था। बेटे को माँ के पास ले जाया गया।
पहले तो बेटे ने माँ के चरण स्पर्श किये। माँ-बेटे गले लग के रोये। और जब जाने की
बारी आयी तो बेटे ने एक जोरदार थप्पड़ अपनी माँ को दे मारा और वहाँ पड़े एक लकड़ी से
अपनी माँ की पिटाई करने लगा। युवक के इस आश्चर्यजनक व्यवहार से सब कोई चकित थे।
खैर सिपाहियों ने पहल कर माँ-बेटे को अलग किया। जेलर को युवक का यह व्यवहार कुछ
समझ में नहीं आया। उसने पूछा - अरे दुष्ट! जीवन भर तो तू पाप करने से नहीं डर रहा
और जिस माँ ने तुझे जन्म दिया, पाला-पोषा,
मरने के समय उसी माँ को पीट रहा है। बड़ा नीच है
तू। बता तूने ऐसा क्यों किया?
तब उस युवक ने जवाब दिया - जेलर साहब! आप मुझे भला-बुरा कह सकते हैं। वैसे भी
मैं अब कुछ मिनटों का मेहमान हूँ। पर आज जो मैं फांसी चढ़ रहा हूँ, उसी माँ के कारण।
वो कैसे? - जेलर ने पूछा।
साहब! जब मैं बच्चा था, स्कूल जाता था,
तो दूसरी-तीसरी क्लास में मैंने एक बच्चे की नई
पेंसिल चोरी की थी और इस माँ को लाकर दिखाया। उस समय इसने मुझे डांटने की बजाय
मेरी सराहना की और यह भी बताया कि अभी कुछ दिन यह पेंसिल स्कूल मत ले जाना,
वरना पकड़े जाओगे। मैंने उसकी बात मान ली और
पकड़ा नहीं गया। फिर मैंने कुछ दिनों बाद एक अमीर लड़के का टीफिन बाॅक्स खाने सहित
चुराया। उस समय भी इसने मुझे डांटा नहीं और हमदोनों ने मिलकर वह स्वादिष्ट भोजन
खाया। फिर कुछ समय बाद मैंने अपने टीचर का बटुआ गायब किया। इस प्रकार मेरी हिम्मत
बढ़ती गई। एक दिन खेल-खेल में उत्सुकतावश शाम के वक्त एक बुढ़े राहगीर को लकड़ी का डंडा
दिखा, उसे बंदूक बता, उसके पास के पैसे एवं पाँच सेर अनाज लूट लिया
और माँ को दिखाया तो वह बहुत खुश हुई और बोली कि अभी कुछ दिन उस बुढ़े के सामने मत
होना एवं गाँव के चौक पर मत जाना। वह बुढ़ा थाने में रपट लिखा चुका होगा। इस बीच
मुझे गाँव के अन्य आवारा लड़कों से दोस्ती हो गई। एक दिन यूँ ही राह चलती लड़की को
हमलोगों ने छेड़ा। फिर एक दिन गाँव के सेठ के घर डाका डाला। सेठ ने मुझे शायद पहचान
लिया था। पुलिस आई एवं पकड़ कर ले गई। दो वर्ष की सजा हुई। जेल में एक से बढ़कर एक
खूंखार एवं बड़े-बड़े कैदी मिले। उनसे मेरा संपर्क हुआ। उन्होंने मुझे अपराध जगत की
वास्तविक दुनिया से परिचय कराया। जेल से छूटने के बाद जेल में मिले साथियों के साथ
एक ट्रेन लूटा। गला काटा इत्यादि। फिर डकैती के क्रम में नरसंहार हुआ। बीस-पच्चीस
व्यक्ति मेरे द्वारा मारे गए। और आज मुझे फांसी हो रही है। अगर इसने उसी समय मुझे
डांटा होता, रोका होता,
जब मैंने पहली चोरी की थी, तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। जब मैं लुट का
डकैती का माल लाकर इसे देता तो यह मुझे और बढ़ावा देती रोकने को कभी भी प्रयास नहीं
किया।’ - यह कहकर युवक शांत हो गया
और एक बार पुनः अपनी माँ के चेहरे पर थुक कर चुपचाप फांसी स्थल की ओर चला गया और
अंतिम समय में उसके अंतिम बोल थे - ‘भगवान ऐसी माँ फिर कभी किसी को न दे।’
उपरोक्त कथा सत्य हो या न हो, यह ज्यादा महत्व
नहीं रखता किंतु यह एक प्रतीक कथा है। एक बच्चे के जन्म में, विकास में पिता का योगदान बस इतना ही होता है
कि वह बीज माँ के गर्भ में रोपित करता है। इसके बाद सारा खेल माँ का। नौ महिने
गर्भ में रखना। अपने खून से बच्चे को सींचना। फिर बच्चे को पालना-पोषना, बच्चे के प्रत्येक सुखः-दुख का ख्याल रखना
इत्यादि।
महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने माता-पिता के प्यार की तुलना इस प्रकार की है।
पिता का प्रेम बच्चे के लिए एक मिठाई की तरह है, जिसके खाये बिना भी जीवन चल सकता है। यह क्षण भर का आनंद
देता है। पर माँ का प्यार उस सुखी रोटी की तरह है, जिसके बिना एक पल भी जींदगी नहीं चल सकती।
संसार का सबसे पवित्र एवं प्रेमपूर्ण षब्द है - ‘माँ’। जब भी किसी
बच्चे पर कोई संकट आता है, तो वह सबसे पहले
माँ को ही पुकारता है। आजकल एक संस्था चली है - जो शिव को गुरू बनाने की क्रांति
ला रही है। ठीक है, इससे मैं कहाँ
इन्कार करता हूँ। लेकिन जैसे शिव गुरू हैं, वैसे ही दुर्गा, काली, गणेश, हनुमान इत्यदि भी तो गुरू हैं, फिर इनका उल्लेख क्यों नहीं?
गोस्वामी तुलसीदास ने तो हनुमान जी को ही अपना परम आध्यात्मिक गुरू माना था।
उन्होंने तो कहा भी है - जै जै जै हनुमान गुसाईं। कृपा करहु गुरूदेव की नाईं।। मैं
जो कहता हूँ - ‘माता ही प्रथम
गुरू है, तो इसका अर्थ केवल यह मत
लगा लेना कि मैं दुर्गा, काली, पार्वती, सरस्वती या लक्ष्मी जैसी कोई देवी मात्र को गुरू बनाने के
लिए कह रहा हूँ। बल्कि माँ और गुरू शब्द अपने आप में इतना महान है कि सारे तथ्य
उसी में समाहित हो जाते हैं। मेरे माँ शब्द की परिभाषा अत्यंत व्यापक है। अगर एक बच्चे
पर से पिता का साया उठ जाता है, तो भी एक माँ
अपने बच्चे का पालन-पोषण अपने पर सारे कष्ट सहते हुए कर लेती है। बच्चे को एक हद
तक पिता की कमी महसूस नहीं होने देती। लेकिन एक माँ की ममता से विहीन बच्चा पग-पग
पर ठोकरें खाता हैं। बहुत हद तक वह टूटा वह व्यक्ति रहता है। ऐसा अधिकतर देखा जाता
है कि किसी व्यक्ति की पत्नी मर गई और उसे शादी करने की इच्छा नहीं थी। किंतु केवल
छोटे बच्चों के लालन-पालन के लिए ही उसे पुनः विवाह करना पड़ा। लेकिन ऐसा एक भी
घटना शायद नहीं हुई कि केवल अपने बच्चे की खातिर किसी महिला ने किसी अन्य पुरूष से
षादी की।
आज मैं जो कुछ भी हूँ, अपनी माँ के बदौलत। तंत्र क्षेत्र में यह सफलता एवं यह
पुस्तक लिखने की प्रेरणा मुझे माँ के द्वारा ही प्राप्त हुई। आज मेरी जींदगी में
परमपूज्य गुरूदेव जी आए, माँ काली आई,
तो केवल मेरी माँ के कारण। बचपन से ही मेरी माँ
के तमन्ना थी, कोई ऐसी किताब
मैं लिखूँ, जिसे हजारों-लाखों
व्यक्ति पढ़े। जीवन के किसी क्षेत्र में जाऊँ मैं नायक बनकर उभरूँ। सैंकड़ों लोग
सम्मान देने हेतु मेरे आगे-पीछे रहें, यही उनकी इच्छा थी। कभी मुझे किसी कार्य के लिए रोका नहीं, मेरी हर छोटी-बड़ी इच्छा को पूर्ण किया। लेकिन
गलत मार्ग पर कभी भटकूं नहीं, इसका भी ध्यान
रखा। उस समय माँ की बातें मुझे बहुत बुरी लगती थीं। पर आज उसका महत्व समझ रहा हूँ।
मेरी जींदगी में दो माँ आईं। एक जिसने मेरे इस शरीर को जन्म दिया, मुझे पाला-पोषा, पढ़ाया-लिखाया एवं गुरू तक पहंुचने में सहायता की और दूसरी
मेरी काली माँ, जिन्होंने मेरे
आत्मा का निर्माण किया। मेरे जीवन के सारे शत्रुओं, बाधाओं, दुर्भाग्यों
इत्यादि का उस आदिशक्ति ने समूल नाश किया। मेरे बच्चे को एक खरोंच भी न आए,
इसी बात का केवल मेरी दोनों माताओं ने ध्यान
रखा। अगर तंत्र क्षेत्र का प्रबल गुरू मिला, तो वह भी केवल माता काली की कृपा से। और संयोग देखिये कि
मेरे जीवन में जो भी गुरू आए, घोर काली उपासक।
और आज इन्हीं दोनों माताओं के कृपा प्रसाद से सैंकड़ों व्यक्ति मेरे चरण छूने
मात्र को लालायित रहते हैं।
मेरी माँ ने मुझे बचपन से ही षायद चार या पांच वर्ष की आयु से पूजा करने को
कहा। इसमें मेरी आत्मिक रूचि भी थी। कोई जोर-जबरदस्ती नहीं हुआ। इस बीच मेरी भक्ति
की परीक्षा भी हुई। एक बार बहुत छोटेपन में ही कुछ दिनों के लिए मेरा पूजा से मन
उचाट हो गया, तो पुनः माँ ने
पूजन के लिए प्रेरित किया। मैं बचपन में बहुत रोता था कि भगवान मेरी पुकार क्यों
नहीं सुनते? मैं इतनी पूजा
करता हूँ, दर्शन क्यों नहीं
देते इत्यादि। तब माँ मुझे दिलासा देती थी, सुनेंगे बेटा, तुम्हारी पुकार अवश्य सुनेंगे। और आज इसका फल सामने है। तंत्र को सामान्य
लोगों के लिए सुलभ कराने चला हँू। कितने व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने को लालायित
रहते हैं।
और जब मैं पढ़ाई-लिखाई में थोड़ा गड़बड़ाया तो झट से दूसरी माँ भगवती काली ने
संभाल लिया। कहीं मेरे बेटे को जमाने की ठोकरें न लगे। तु मेरे लिए कार्य तो कर के
देख, फिर देख क्या चमत्कार
करती हूँ, तेरे जीवन में। लोगों को
सच्चा ज्ञान दे, उनका उद्धारक बन,
फिर देख मैं तेरा कैसा उद्धार करती हूँ। यही
आत्म प्रेरणा हुई जगदम्बा से । विवेकानंद भी तो कुछ पैसे की क्लर्क की नौकरी के
लिए दर-दर भटक रहे थे। उस ममतामयी माँ ने उन्हें भी सहारा दिया। रोना मत बेटे - अब
तू देगा और सारी दुनिया लेगी। और उस भारत माँ के सच्चे सपूत ने सारे विश्व में
अपनी भारत माता और सत्य-सनातन धर्म की आदि जननी तंत्र माता काली का सिर गर्व से
ऊँचा किया।
रामकृष्ण परमहंस से जब कोई पूछता था - स्वामि जी! यह दूध आपको कौन देता है?
तो स्वामी जी झट से बच्चों के भोलेपन सा जवाब
देते थे - ‘आमार माई देई।’ अब कौन दूध दूहता है, कौन गर्म करता है, एक सच्चे तंत्र मार्गी परमहंस को इन सांसारिक बातों से क्या मतलब? उनके लिए तो बस माँ ही सब कुछ है।
यह सीख है परमहंस जी का। एक वास्तविक तंत्र साधक को केवल अपने इष्ट से ही
मांगना चाहिए। दुनियावी बातों से हमें क्या लेना-देना?
मेरे कुछ मित्र हैं, जान-पहचान के
हैं। वे शराब एवं ताड़ी का व्यापार करते हैं। रोज ग्राहकों से तू-तू, मैं-मैं होती है, गाली सुनते हैं, इत्यादि। उनकी माँ ने उन्हें इस व्यापार में लगाया, दुकान पर जाने को प्रेरित किया, तो रिजल्ट सामने है। कुछ ज्यादा ही पैसे आ रहे हैं, उन्हें - किंतु उस धन में अपमान है, न जाने कितनों के हाय है, श्राप हैं, बद्दुआयें हैं। दूसरों का चूल्हा बुझाकर अपना चूल्हा जलाते
हैं।
और मेरी माँ ने उस परमशक्ति की अराधना करने को बताया तो, उसका भी परिणाम सामने है। किसी भी बच्चे का
चरित्र एवं भविष्य निर्माण में उसकी माँ की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
क्योंकि जब एक पुरूष शिक्षित होता है, तो केवल वह शिक्षित होता है। लेकिन जब एक स्त्री शिक्षित होती है, तो संपूर्ण परिवार शिक्षित होता है। इसलिए
महादेवी वर्मा ने कहा भी है - स्त्रियों का वास्तविक सौंदर्य उनकी शिक्षा ही है।
खूब गहने गढ़ा के भी क्या कर लोगी। बेटा अगर नालायक निकल गया तो, सारे गहने बेच के खा जाएगा और बुढ़ापे में दर-दर
की ठोकरें खाने को विवश कर देगा। छत्रपति शिवा जी की महाराज को देश भक्ति एवं धर्म
की शिक्षा उनकी माँ जीजाबाई से मिली। उन्होंने कभी भी मुगल साम्राज्य से हार नहीं
मानी। सदा आगे ही रहे और छत्रपति कहलाए। अपने गुरू एवं माता के निर्देशन में
मृतप्राय मराठा समाज में उन्होंने प्राण फूंक दिया था। औरंगजेब भी उनसे डरता था।
मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य को भी उसकी माँ ने चाणक्य के हाथों
सौंपा और भारत की सीमा का जैसा विस्तार उसके शासन काल में हुआ, फिर कभी नहीं। विदेशियों को खदेड़ दिया
उन्होंने। एक माँ की आंखें ही सच्चे गुरू को पहचानती हैं। यही मैंने अपने जीवन में
सीखा। सदा माँ एवं गुरू के बताये रास्ते पर चलंूगा। इसलिए श्री रामचंद्र ने भी शबरी
को माँ कहा। शबरी मतंग मुनि की शिष्या थी।
वह मतंग मुनि, जिसके घर शाक्षात
आदि शक्ति जगदम्बा ने मातंगी रूप में अवतार ग्रहण किया था। और माँ शब्द सुनते ही शबरी
का रोम-रोम पुलकित हो उठा। आँखों में ममता के सागर लहराने लगे और उन्होंने राम को
रावण पर विजय पाने का मंत्र, गुरू एवं मित्रों
का पता बता दिया। साथ ही मतंग मुनि द्वारा सिद्ध किए गए दिव्यास्त्रों को भी खुशी-खुशी
प्रदान कर दिया।
पिता तेगबहादुर की अनुपस्थिति में भी माता गुजरी बाई ने श्री गुरू गोविंद सिंह
महाराज को शस्त्र एवं शास्त्र की उच्च शिक्षा दी। देश एवं धर्म की रक्षा हेतु
कुर्बानी करने की महान शिक्षा दी। और उसी माँ के बताए मार्ग पर चलते हुए उन्होंने
महामाई से वर मांग ही लिया - वर देहि शिवा मोहे एहि, शुभ कर्मण ते कबहूँ न टरूँ।
और मुगल साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी। धर्म की रक्षा हेतु खालसा पंथ की
स्थापना भी कर दी। संसार का सबसे पवित्र शब्द
है - माँ। कहा भी गया है - पुत्र कुपुत्र हो सकता है, किंतु माता कुमाता नहीं हो सकती। माँ बच्चे को थकाती है और
जब बच्चा थक जाता है, तो बच्चे को गोद
में उठा लेती है। क्योंकि वह जगदम्बा जानती है, जब तक यह थकेगा नहीं, तब तक मेरी गोद में चैन से रहेगा नहीं सबसे बड़ा महामंत्र है
- लो थक गया मैं माँ। जिस दिन सच्चे हृदय से यह कह उठोगे, आदि शक्ति जगदम्बा प्रकट होकर संभाल लेंगी, गिरने नहीं देंगी, यह वादा है। देवता भी जब सब उपाय कर युद्ध कर थक गए,
तो उन्होंने हृदय से ममतामयी माँ का आह्वाहन
किया और संपूर्ण चराचर की निर्मात्री प्रकट हो कर खेल-खेल में ही महिषासुर,
शुम्भ-निशुम्भ,
रक्तबीज जैसे दानवों का संहार कर दिया। भगवान
विष्णु भी मनुश्यों के पाँच हजार वर्षो तक युद्ध कर थक चुके थे और अंत में जब हार
कर माँ आदि शक्ति को ब्रह्मा जी ने पुकारा, तो माँ ने शीघ्र ही मधु-कैटभ पर विजय दिला दी। राम भी जब
युद्ध में थक रहे थे, तो उसी आदि शक्ति
जगदम्बा का आह्वान किया और माँ ने अपनी पुत्री के दुःखों को देखते हुए सहर्ष राम
को चण्डिकास्त्र, कालिकास्त्र
इत्यादि प्रदान कर दिया, जिससे रावण की
मृत्यु संभव हुई।
भगवान शिव स्वयंभू हैं, इसलिए
अपभ्रंषात्मक रूप में उनका एक नाम शंभू कहा जाता है। किंतु एक बार उन्हें भी
स्वीकार करना पड़ा कि कोई उनसे भी ऊपर की शक्ति है। उन्हें भी ‘माँ’ कहना पड़ गया था। काली को अपनी छाती पर रोककर, कुछ दुष्ट दैत्यों को समाप्त कर वे अपने को एकमात्र सर्वशक्तिमान्
समझने लगे थे, अर्थात् शक्ति
उनके अधीन है। हाँ जब व्यक्ति को मान-सम्मान मिलता है, तो वह अपने वास्तविक निर्माता को ही भूल जाता है। समुद्र
मंथन के समय देवताओं की पुकार पर उन्होंने हलाहल कालकूट विष अपने कंठ में धारण तो
कर लिया, किंतु उसके प्रभाव से वे
दग्ध होते जा रहे थे। महान् करूणामयी प्रभु को उस समय केवल ‘माम् पालय पालय’ की ध्वनि ही सुनाई पड़ रही थी। विष बाहर था, तो भी संसार दग्ध और शिव ने अपने उदरस्थ किया तो भी महान
भय। क्योंकि शिव हैं, तो जीव है। शिव
में ही सारा ब्रह्माण्ड है। विष से शरीर निढाल हो रहा था, किंतु अक्षोभ्य बने हुए थे। ज्योंही वह लड़खड़ाकर गिरने वाले
थे, अचानक उनके मंुह से माँ शब्द
निकला। यही तो आदिशक्ति सुनना चाहती थी। हाँ, गणेश, कार्तिकेय,
वीरभद्र, एवं भैरव इत्यादि से भी पहले शिव ने ही जगदम्बा को माँ कहा।
बस झट से वहाँ संसार की प्रथम माता के रूप में देवी तारा के रूप में प्रकट हो गयी,
और शिव को धरती पर गिरने से पहले अपने गोद में
संभाल लिया। शिव को शिशु का रूप दे अपने अमृतमयी स्तन से उन्हें दुग्धपान कराने
लगी। देवाधिदेव भी सब कुछ भूलकर बिल्कुल बच्चों की तरह दुध पीने लगे। ज्यों-ज्यों
वह दूध पी रहे थे, त्यों-त्यों उनके
शरीर से विष गायब होने लगा। शरीर का नीलापन हटकर गौर वर्ण में परिवर्तित होने लगा
और देवी तारा नीलवर्ण की होती गई। केवल प्रतीक चिन्ह के रूप में कंठ में नीलापन
छोड़ दिया। कंठ में सरस्वती का वास होता है। भोलेनाथ की प्रार्थना पर उनके कंठ में
नील सरस्वती के रूप में विराजमान हो गई। इस प्रकार अपने पुत्र को जीवन दान दे वह
आदि शक्ति महमाया तारा न जाने कहाँ से आई थी और न जाने कहाँ चली गई। और वे शिव की
माता के रूप में प्रतिश्ठित हुई। अपने पुत्र को अपने सिर पर स्थान दिया उन्होंने।
बंगाल का तारा पीठ इसी घटना की याद में निर्मित किया गया है। और इस प्रकार शिव ने
आदि शक्ति की सत्ता स्वीकार कर ली और उस महामाया के आगे - ‘भिक्षां देहि’ कह ही उठे।
देवी अन्नपूर्णा की तस्वीर देखे। सारे संसार में औघड़दानी से प्रसिद्ध शिव भी
भगवती त्रिपुर सुंदरी के आगे झोली फैलाते हैं, एवं सिद्धियों की भिक्षा मांगते हैं। तो फिर कहाँ से हुए शिव
प्रथम गुरू, प्रथम गुरू तो
आदि शक्ति जगदम्बा हुई। विश्णु स्वरूप राम तो शिव स्वरूप हनुमान के साथ थे,
लेकिन जब सीता अलग हुई तो क्यों हनुमान को
लव-कुश के हाथों बंधना पड़ा?
देखो! आध्यात्म में दो तरह के लोग होते हैं। कुछ लोग परम सत्ता को पिता की तरह
देखते हैं, कुछ लोग परम सत्ता को माँ
की तरह देखते हैं। लेकिन जो लोग आध्यात्म की बहुत गहराई में उतरे हैं, उन्होंने परम सत्ता को माँ की तरह देखा है।
अगर ईश्वर पिता है, तो यह संपूर्ण
जगत उसका एक कृत्य है। लेकिन ईश्वर अगर एक माता है, तो सृजन में शाषवतता है। माँ तो नैःसर्गिक है, हमने बनाई नहीं, बल्कि वह तो बच्चों के कण-कण में समाहित होती है। माँ ही
बच्चे को बताती है कि उसका पिता कौन है?
जिन्होंने ईश्वर को पिता की तरह माना उन्होंने दूरी खड़ी कर दी और जिन्होंने
माँ की तरह माना वह तो एक प्राकृतिक व्यवस्था है। वह जननी है, उसी से सब निकलते हैं। पश्चिमी धर्म कहता है,
गाॅड फादर, अर्थात् ईश्वर पिता। लेकिन सनातन धर्म कहता है - पिता नहीं
माता। जगदम्बा सारे जगत् की जननी है। बस मेरे पुत्र को कुछ न हो, वरना सारे जगत का भक्षण कर जाऊँगी - यही है,
जगदम्बा का उद्घोष। गणेष वध के समय यह कर भी
दिखाया, उन्होंने।
रात के एक बज रहे हैं और मंगलवार है। अर्थात् महाकाली का पूर्ण समय, जब सारे लोग सोए हुए हैं और मैं जाग रहा हूँ;
इस लेख को पूर्ण कर रहा हूँ।
इस प्रकार से मेरी
महाकाली उपासना संपन्न हो रही है। शिघ्र ही मेरे एवं मेरे शिष्यों के अन्य शत्रुओं
की बली चढ़ रही है। जीवन के सारे कंटक दूर हो रहे हैं। रात्री के एक बजे महाकाली ने
यह उद्घोष कराया, निष्चित ही सत्य
होगा। तंत्र क्षेत्र के महान् गुरूओं में मेरा नाम होगा और अपने गुरू का सच्चा शिष्य
सिद्ध होऊँगा। काली का भक्त, काली का उपासक
कालिकामयी वाणि ही बोलेगा, अर्थात् अघोर
सत्य, नग्न सत्य। जाते-जाते यह
भविश्यवाणी कर रहा हँू, जो कौम मातृ
सत्ता का इंकार कर रही है, भारत देश को माँ
की तरह नहीं, बल्कि मेहबूबा
मान के चलती है, शिघ्र ही उनका महाविनाश होगा। काली उनका रक्तपान करने को
तैयार है।
अभी भी समय है - संभल जाओ। माँ तो सदा ममतामयी होती है, किंतु मेहबूबा का प्रेम बदल भी सकता है। अंत में बस यह शब्द
केवल कहना चाहता हँू - त्वमेका भवानी त्वमेका।
नोट :- यह लेखा मेरे द्वारा वर्ष २००७ में लिखी गयी थी, जिसे अब प्रकाशित कर रहा हूँ. माँ को महबूबा कहने वालो का हश्र आप देख रहे है. सीरिया से लेकर कश्मीर तक में महाविनाश.
-- श्री अभिषेक कुमार
(मंत्र, तंत्र, यन्त्र विशेषज्ञ)
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कृपया मेरे इस लेख पर अपनी राय व्यक्त करे
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