परा और अपरा शक्ति
1. शक्ति शब्द का विवेचन:-
शक्ति शब्द की व्याख्या देवी भागवत
महापुराण में इस प्रकार से की गयी है - ‘श’ शब्द (मंगलवाचक
होने से) ऐश्वर्यवाचक है और ‘क्ति’ शब्द पराक्रम के
अर्थ में है। इससे ऐश्वर्य और पराक्रम को देने वाली ‘शक्ति’ कहलाती
है।
व्यवहार में शक्ति का है सामर्थ्य,
जैसे
बल और परमार्थ में शक्ति का अर्थ है उपाधि (उप त्र पास में, आ $ धि
त्र रखना) अर्थात् सामान्यतः विशेष गुण और विशेषतः जिसके कारण पदार्थों के
स्वभावों में रूपांतर हुआ-सा प्रतीत होता है। इस शक्ति को जगद्वन्द्य
श्रीमद्भगवद्गीता में माया (‘सम्भवाम्यात्ममायया’ 4/6), योग
(‘प्श्य मे योगमैश्वरम्’ 9/5) और प्रकृति (प्रकृति स्वामवष्टभ्य’
9/8) आदिनाम दिए गए हैं। इसे माया (‘मा’ अर्थात्
जो नहीं है ‘या’ अर्थात् जो न होकर भी भासमान होती है)
ऐसा कहने का कारण यह है कि उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं है, किंतु सूर्य
किरणों पर जिस प्रकार मृगजल का आभास होता है, उसी प्रकार
ईश्वर पर वह भासमान होती है। योग शब्द ‘युज’ (जोड़ना) धातु से
बना है। उसका धात्वर्थ जोड़-मिलाप है, पीछे स्थिति प्राप्त करने का उपाय साधन,
युक्ति,
कौशल,
चातुर्य
इत्यादि अर्थों में योग शब्द का प्रयोग हुआ है, इसलिए ईश-शक्ति
को ‘योग’ भी कहते हैं। कारण, ईश्वर जगद्रूप
होकर भी अपनी शक्ति के अर्थात् चातुर्य के बल पर त्रिकाल अबाधित रहता है। इसे वेद
और शास्त्रों ने सुवर्ण अलंकार का दृष्टांत देकर इस प्रकार समझाया है-जिस प्रकार
स्वर्ण अलंकार (गहना) बनकर भी अपना सोने का गुण बनाए रखता है, उसी
प्रकार चैतन्य स्वरूप ईश्वर विश्वरूप होकर भी अपना चैतन्य कहीं खो नहीं देता।
परंतु दूध में यह शक्ति नहीं है। वह दही या मक्खन बनने पर दूध नहीं रह जाता । ‘प्रकृति’
शब्द
की व्युत्पत्ति देवी भागवत में इस प्रकार दी गयी है -
‘मुख्य सत्व गुण के लिए ‘प्र’
अक्षर
है, मध्यम रजोगुण के लिए ‘कृ’ अक्षर है और ‘ति’
अक्षर
तमोगुण का वाचक है। (सारांश ‘प्र’ ‘कृ’ और ‘ति’
तीनों
अक्षरों से युक्त नाम में सत्व, राजस और तामस गुणों का अर्थ व्यक्त
है।) उसी प्रकार ईश-शक्ति में भी सत्व, रज और तम- तीनों गुण समाविष्ट होने के
कारण उसे ‘प्रकृति’ नाम दिया गया है। माया और प्रकृति- इन ईश शक्ति
के दो नामों के संबंध में निम्नलिखित विवरण मनन करने योग्य है -
माया
और प्रकृति एक ही हैं। माया को दूसरी स्थिति प्राप्त होने पर ‘प्रकृति’
नाम
मिल जाता है। प्रथम माया शुद्धस्वरूपिणी होती है। त्रिगुणों की उत्पत्ति उससे होने
पर उन गुणों के सहित उसे प्रकृति नाम प्राप्त होता है। कन्या उत्पन्न होने पर उसके
माता-पिता उसका नाम गोदावरी या यमुना रखते हैं। उसके विवाह योग्य होने पर किसी
योग्य वर के साथ विवाह कर दिया जाता है। मान लीजिए पति के घर जाने पर उसका नाम
पार्वती, शीला अथवा रमा रखा जाता है। यहाँ पार्वती, शीला या रमा और
गोदावरी या यमुना दो अलग-अलग महिलाओं के नाम नहीं हैं। परंतु परिस्थिति बदलने के
कारण उसी लड़की को एक दूसरा नाम मिल जाता है। उसी तरह माया का गुणवती होना उसके
विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त होता है। जब वह परम पुरुष को पति रूप में स्वीकार
कर लेती है, तो उसे ‘प्रकृति’
नाम
प्राप्त होता है। तदन्तर उस पुरुष की सत्ता को ‘प्रकृति’
से
चराचर उत्पन्न होता है।
2. शक्ति या प्रकृति के मुख्य दो भेद - परा और अपरा
इस शक्ति के मुख्य भेद दो हैं - (1)
परा
और (2) अपरा। उनकी उत्पत्ति, स्थिति ओर लय का विस्तृत विवरण इस
प्रकार है -
यह सृष्टि उत्पन्न होने के पहले
निर्विकल्प अर्थात् जहाँ पर अविद्याकृत मिथ्या विकल्प, दृश्य भेद आदि
कुछ भी नहीं है, अनंत अर्थात जिसका जिसका देश-कालादि (किस जगह
से किस जगह तक या किस समय से किस समय तक) आद्यन्त नहीं है, हेतु दृष्टांत
वर्जित, अर्थात् जिसका निमित्त (क्यांे है? यह पूछने पर
निमित्त नहीं दिखाई देता) और जो अमुक पदार्थ के समान है, ऐसा नहीं कहा जा
सकता, इस प्रकार का एक ही र्निगुण, निराकार ब्रह्म था। उसी में ‘अहम्
ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, इस प्रकार की
प्रथम स्फूर्त्ति हुई। इसी को मूलमाया, अव्यक्त प्रकृति, विद्या,
आदिशक्ति,
शुद्ध
सत्व इत्यादि नाम दिए गए हैं। इसमें जो व्यापक अर्थात् स्फूर्त्ति को जानने वाला
चैतन्य या ज्ञान होता है, उसे ही ईश्वर या सगुण ब्रह्म कहते हैं।
तदुपरांत माया और ईश्वर के संयोग में सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा प्रकट हुई। यह
दूसरी स्फूर्त्ति थी। इसे त्रिगुण सूत्र रूपिणी माया, गुणवती माया या
अविद्या, प्रकृति इत्यादि कहते हैं। यह स्वयं अपने को ‘माया’ कहने
लगी। इसे ही अज्ञान कहते हैं। इसने स्वरूप पर आवरण डाला, इसमें संकल्प
उत्पन्न हुआ कि ‘‘मैं ही जगद्रूप होऊँगी। इस संकल्प का नाम
महतत्व है। उस महतत्व मंे जो सत्वांश था, उसमें जो ईश्वर का प्रतिबिम्ब बिम्बित
हुआ, उसे ब्रह्मा कहते हैं। महत्तत्व से अहंकार पैदा हुआ, इस
अहंकार से सत्व, रज और तम- ये तीन गुण उत्पन्न हुए। ये ही संसार
के कर्त्ता-धर्त्ता विधाता हैं। इनमें रजोगुण की क्रियाशक्ति, तमोगुण
की द्रव्य शक्ति (पदार्थ शक्ति) और सत्वगुण की ज्ञानशक्ति होती है। क्रियाशक्ति से
प्राण और इन्द्रिय हुए, ज्ञान शक्ति से अंतःकरण मन, बुद्धि
इत्यादि देवता (गुण) उत्पन्न हुए और द्रव्य शक्ति से आकाश इत्यादि पंचमहाभूत
उत्पन्न हुए। अनन्तर चौदह भुवनों की रचना हुई। पाताल से सत्यलोक तक अनंत गोल मिलकर
एक ही विराट् शरीर बना। उसमें चेतना न हुई, इसलिए मायाधीश
मूलपुरुष के अपने अंशरूप से उसमें प्रविष्ट होने पर विराट् में कार्य-क्षमता आई।
जिस अन्वय से सृष्टि की कल्पना हुई, उसी अन्वय से प्रलयकाल में सृष्टि
जहाँ-की-तहाँ मिल गयी। आकाशादि भूत तमोगुण में, उसी तरह रज,
सत्व
भी एक-दूसरे में मिलकर तमोगुण में लीन हो गए। तमोगुण अहंकार में, अहंकार
महत्तत्व में, महत्तत्व अविद्या माया में, अविद्या
माया मूल माया में और मूल माया ब्रह्म में लीन हो गयी।
यह
वर्णन् भगवद्गीता के सातवंे अध्याय में इस प्रकार से दी गयी है -
भूमिरापो∙नलोवायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार
इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
अपरेयमितस्वत्वन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीव भूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
एतद्योनीनि
भूतानि सर्वाणीत्युपराधारय। अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।
3. परा का विवरण -
परा विद्या अर्थात् परा शक्ति की
व्याख्या मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार दी हुई है -
‘परा यया तदक्षरमधिगम्यते।’
(1/1/5) - जिसके द्वारा अविनाशी ब्रह्म का ज्ञान होता है, उसे
परा विद्या कहते हैं।
इसका
वर्णन श्री आदि शंकराचार्य जी ने अपने प्रश्नोपनिषद् के भाष्य में इस प्रकार किया
है -
परा विद्यागम्यम् असाध्यसाधन लक्षणम्,
अप्राणमनोगोचरम्
अतीन्द्रियाविषयं शिवं शान्तम् अविकृतमक्षरं सत्यं पुरुषाख्यम्।।
इस
विद्या को श्रीमद्भगवद्गीता के 9 वें अध्याय के दूसरे श्लोक में इस
प्रकार किया गया है -
राजविद्या राजगुह्यं
पवित्रमिद्दमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
- सब विद्याओं का
राजा और सब गुह्यों का राजा कहा गया है। और जिसमें यह विद्या वास करती है, उसे
भगवद्गीता के 16 वें अध्याय के तीसरे श्लोक में दैवी
सम्पत्तिवान कहा गया है। इसी शक्ति को -
सत्यं दानं तपः शौचं संतोषो ”ीः
क्षमार्जवम्। ज्ञानं शमो दया ध्यानमेषां धर्मः सनातनः।।
इसी व्यासोक्ति में ‘सनातन
धर्म’ कहा गया है। उसी प्रकार इसी शुद्ध सत्वगुणी प्रकृति को भगवद्गीता के 14
वें अध्याय के अंतिम श्लोक में ‘शाश्वत धर्म’ कहा गया है;
यह
बात उस श्लोक की यथार्थ दीपिका टीका से सिद्ध होती है। यही वैष्णवी, नारायणी,
शिवा,
शांभवी,
सौरीप्रभा
(सौर्य प्रभा), गाणेशी और आदिशक्ति है।
- इस शक्ति
अर्थात् भक्ति के संबंध में श्री ज्ञानेश्वर महाराज ‘भावार्थ दीपिका’
में
कहते हैं -
‘हे अर्जुन! यह भक्ति उत्तम होने के
कारण मैंने कल्प के आरंभ में भागवत द्वारा ब्रह्माजी को बतलायी। ज्ञानी लोग इसे ‘स्वसंविवी’
कहते
हैं, शैव इसे शक्ति कहते हैं और हमलोग इसे श्रेष्ठ भक्ति कहते हैं।
4. अपरा का विवरण -
अपरा विद्या की अर्थात् अपरा शक्ति की
व्याख्या मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार की गयी है -
तत्रापरा ऋग्वेदोयजुर्वेदः सामवेदो{थर्व
वेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तं छन्दोज्योतिषमिति। (1/1/5)
- अपरा विद्या
अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
और उनके अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त,
छन्द
और ज्योतिष। उसका वर्णन् श्री शंकराचार्य जी ने अपने प्रश्नोपनिषद् के भाष्य में
इस प्रकार किया है -
अपरा विद्या गोचरं संसारं व्याकृतविषयं
साध्य साधन लक्षणं अनित्यम्।
यह विद्या जीवों को जन्म-मरण से नहीं
छुड़ा सकती। अतः इसे श्रीमद्भगवद्गीता के 7 वें अध्याय में ‘अविद्या’
अथवा
‘गुणमयी माया’ कहा गया है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (7/14)
- इसका विशद् अर्थ
इस प्रकार है - मैं देव अर्थात् स्वप्रकाश हूँ और यह त्रिगुणसूत्र रूपिणी माया
मेरे आश्रय से है। इसलिए इसे दैवी कहते हैं। जो लोग मेरी शरण आते हैं अर्थात् मेरे
सिवा और कुछ भी नहीं है, यह प्रतिपादन करते हैं, वे
इस माया से सहज में छुटकारा पा जाते हैं, अर्थात् श्री ज्ञानेश्वर जी के
कथनानुसार मायानदी के इस तीर पर माया का जल ही सुख जाता है। इस उपाय के अलावा अन्य
किसी उपाय से इसे पार करना अत्यंत कठिन है।
इस अविद्या में ‘जगद्रूप मैं ही
बनूंगा’ इस प्रकार जो संकल्प उठा, वही भगवद्गीता के 15
वें अध्याय के निम्नलिखित श्लोकों में वर्णित ‘ऊर्ध्वमूलमधः
शाख वृक्ष’ है।
संसार एक अश्वत्थ वृक्ष है। उसका मूल
ऊपर है और शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई हैं और वेद इन्हीं के पत्ते हैं। इस अश्वत्थ
वृक्ष को जो अव्यय समझता है, उसी वेदवेत्ता है। गुणों से बढ़ी हुई और
विषयरूपी डालियों वाली ऊपर-नीचे दोनों ओर इस वृक्ष की शाखाएँ फैली हुई हैं। इन
शाखाओं में कर्मरूपी अनेक जड़ें निकलती हैं और उनसे इस लोक में जीव बंधे रहते हैं।
इस अश्वत्थ वृक्ष का कोई रूप नहीं है। अतः उपादान कारण से उसमें अव्ययत्व मिलता
है। इसका अंत भी नहीं है आदि भी नहीं है, और न प्रतिष्ठा ही है। ऐसे इस दृढमूल
अश्वत्थ वृक्ष को ज्ञानशस्त्र से काट डालना चाहिए। अनन्तर उसमें उस पद को ढूंढना
चाहिए, जहाँ जाने पर पुनरावृत्ति नहीं होती है। जिससे अनाति प्रवृत्ति फैली
हुई है और उस आद्य पुरुष को अर्थात् सगुण स्वरूप को प्राप्त हूँगा, इस
भावना के साथ उस पद को ढूंढना चाहिए। (श्लोक 1-4)
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः
श्रियः। ज्ञान वैराग्ययोश्चेति षण्णां भग इति स्मृतिः।।
भगवान के षड्गुण प्रदर्शक स्मृतियों
में भी उस चित्कनक की अपरा प्रकृति का अर्थात् जगत अलंकार का वर्णन किया है। यह
बात उस स्मृति की यथार्थ बोधिनी की निम्नलिखित टीका से स्पष्ट होती है -
ऐश्वर्य का अर्थ है, सामर्थ्य।
वास्तव में यह जगत् न होकर भी इंद्रियों द्वारा मिथ्या भासित होता है, यह
भगवान का ऐश्वर्य ही है। अविद्या से सारा संसार सत्य भासता है। परंतु विद्या से यह
देखने में आता है कि वह भगवान का अघटित-घटना योग है। अविद्याजनित कर्म बल से
सुख-दुःख रूपी विषम फल भोगने पड़ते हैं। वह ज्ञानदृष्टि से भगवान के ही रूप दिखाई
देते हैं। इस प्रकार के विषम फल जीवों को भोगने पड़ते हैं। तथापि भगवान सम और सदय
हैं, यह बात पाँचवें अध्याय में सिद्ध हुई है। इसलिए उसमें ‘धर्म’
यह
गुण लगता है। यह समसदयत्वरूपी धर्मगुण ज्ञानी मनुष्य कर्म में देखता है। हर एक का
उत्तम कर्त्तृत्व उसके यश का चिन्ह होता है। इसी न्याय से संसार की अघटित घटना
भगवान का यश दर्शित करती है और ज्ञानी पुरुष उसे वैसा ही देखते हैं। भूत, पृथ्वी,
जल,
तेज
आदि न होकर भी भासमान होते हैं, यह माया का खेल है। यह माया ही श्रीरूपिणी
है और चराचर इसी माया का रूप है। क्योंकि उसे धारण करने वाले ‘श्रीधर’
अरूप
हैं। श्री और श्रीधर दोनों माया के ही रूप हैं। उन दोनों में एक ही प्रकाशक ब्रह्म
हैं। परंतु ‘मैं माया हूँ’ यह भाव श्रीरूप
होता है और मैं ब्रह्म हूँ, यह भाव श्री धर रूप होता है।
चित्स्वरूप श्रीधर चराचर रूप माया को धारण करता है, परंतु स्वयं
अरूप रहता है, यह भक्त जानता है। अतः चराचर का आकार भगवान की
श्री अर्थात् माया है। यह बात वह देखता है। व्यावहारिक दृष्टि से श्री का अर्थ
संपत्ति होता है। अनेक वस्तुओं की समृद्धि अर्थात् अनेकत्व संपत्तिदर्शक है।
बहुत-सा धन, अनेक नौकर, कई घोड़े-गाड़ियों
और घरों के मालिक को श्रीमान् कहते हैं। उसी प्रकार अनंत सृष्टि का ईश भगवान हैं।
अतः यह उसकी श्री है, यह भी ज्ञानी देखता है। ज्ञान चित्स्वरूप है और
वह वृत्तिरूप सात्विक ज्ञान का प्रकाशक है। इसी ज्ञान को भक्त चराचर में देखता है।
माया के कारण निर्गुण ईश्वरत्व का प्रत्यय होता है। ईश्वर सृष्टि करने का संकल्प
करता है, तब साक्षित्व उत्पन्न होता है। इस साक्षित्व को साथ अपने को छः भावों
से कल्पित करता है। वे छः भाव ये हैं - (1) जनन भाव (2)
अस्तित्व
भाव (3) वर्द्धन अर्थात् बढ़ने का भाव (4) परिणाम भाव
अर्थात् वृद्धि रुकने का भाव (5) क्षय भाव अर्थात् अंगक्षय होने का भाव
(6) नष्ट होने का भाव। इन भावों का वह साक्षी होकर रहता है। चराचरों में
इन छः भावों को देखने को ‘ज्ञान’ कहा गया है।
अपना आत्मा अर्थात् भगवान के ही ये भाव हैं, यह समझकर उनसे
युक्त चराचर संसार को भक्त भगवद्रूप देखता है। अपने में सब कुछ कल्पना करके भी
भगवान स्वयं केवल साक्षित्व से ही रहते हैं, यही उनका
वैराग्य गुण है। सर्व चराचर संसार इन गुणों का दर्शक है, अतः ज्ञानी भक्त
उसे भगवद्रूप देखता है। सारांश भगवान के षड्गुण चराचर सृष्टि में देखने में आते
हैं। इसलिए चराचर भगवद् रूप है, यह सिद्ध हुआ। चराचर भग है और उसका
प्रकाशक आत्मा है। अतः चराचर आत्मा भगवान का शरीर है।
1 Comments
NICE POST ....
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