Aghori : अघोरी क्यों शांत रहते हैं?

 अघोरी क्यों शांत रहते हैं?

 (परमपूज्य गुरुदेव श्री अरविंद सिंह जी के दिव्य एवं पवित्र कलम से)

                वेदांत और तंत्र शास्त्र दोनों का अनुसंधान समग्र रूप से भारत की धर्मभूमि पर ही हुआ है। साधारण जनमानस मुख्य रूप से भेदात्मक दृष्टिकोण रखता है। उसका सारा चिंतन दूसरों के अनुभवों पर आधारित होता है या कुछ अधकचरी पुस्तकों में जो पढ़ा, उसी के हिसाब से सोचने लगता है। कुछ ढोंगी और पाखंडियों के कारण वह तंत्र को हेय दृष्टि से देखता है, तो वहीं वर्ग विशेष द्वारा धर्म को व्यवसाय में परिवर्तित करने के के कारण वेदांत दर्शन से भी दूर भागता है। जिन्हें वेदान्त और तंत्र दोनों का शोषण करना होता है, वे इसे क्लिष्ट, रहस्यमय और ऊटपटांग तथाकथित नियमों में आबद्ध कर लेते हैं। वास्तव में तंत्र और वेद एक-दूसरे से कभी अलग थे ही नहीं। तंत्र के बिना शंकराचार्य वेदांत दर्शन के अद्वैत स्वरूप को जनमानस तक कभी भी नहीं पहुंचा पाते। समस्त ब्रह्माण्ड उसमें मौजूद विभिन्न तत्व, घटनायें, जैविक संरचनायें सभी कुछ वैदिक स्पन्दनों के द्वारा तंत्र विशेष से योग कर मूर्त रूप धारण करती हैं। अधिकांशतः पत्रिकायें गृहस्थ ही खरीदते हैं। अतः ये पत्रिकायें जो कि दूसरों के अनुभवों पर आधारित होती हैं, भय के मारे तंत्र की सच्चाई जनसाधारण तक नहीं पहुंचाती। मान्यताओं को खंडित करना आसान कार्य नहीं है। इसके लिए तो महाकाली की परमशक्ति आत्मसात करनी ही पड़ेगी। भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा उच्चारित गीता साक्षात महाकाली की कृपा है।


                गीता में वर्णित उपदेश आज भी मानव मस्तिष्क में स्थापित विभिन्न तथाकथित मान्यताओं को खंडित करने में समर्थ है। अर्जुन के मस्तिष्क में घुमड़ रहे विचचारों को अगर महाभारत के युद्ध के समय निर्मूलता से नष्ट न किया गया होता, तो फिर महाभारत का युद्ध संभव ही नहीं था। धर्म की स्थापना द्वापर में कभी नहीं हो पाती एवं श्रीकृष्ण का अवतार व्यर्थ ही चला जाता। महाकाली को दक्षिणकाली के नाम से भी संबोधित किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह दक्षिण दिशा की स्वामिनी है। आप धर्मभूमि भारत के नक्शे को देखिये। उत्तर की तरफ हिमालय है, जो कि इस धर्मभूमि का शीश है, भगवान शिव का स्थान। अनेकों ऋषि-गण आज भी ध्यान मग्न हैं यहाँ। प्रत्येक महापुरुष को जीवन में एक न एक बार यहाँ तपस्यारत होना ही पड़ता है तो वहीं दक्षिण दिशा में धर्मभूमि सिकुड़ती हुई चारों ओर समुद्र से घिर जाती है, अर्थात् धर्मभूमि का अंतिम छोर दक्षिण ही है। इसी धर्मभूमि पर सभी धर्मों का अनुसंधान हुआ है। अनंत काल से इस धर्मभूमि का प्रत्येक कण, वायु, जल इत्यादि-इत्यादि आध्यात्म की दिव्य शक्ति से शक्तिकृत होते रहे हैं और होते रहेंगे। सभी अवतार पुरुष इसी धरा पर पले हैं। यह धर्मभूमि इतना मातृत्व लिये हुए है कि अनंत वर्षों से प्रत्येक पंथ, प्रत्येक धर्म और विचारधारा को अंकुरित होने का पूर्ण वातावरण प्राप्त होता है। प्रत्येक ब्रह्माण्डीय शक्ति यहाँ पर उपासना के द्वारा आत्मसात की जाती है, परंतु यह धर्मभूमि किसी एकांगी धर्म का गढ़ कभी नहीं बन पाई और न कभी बन पाएगी। अनेकों बार भीषण एवं हिंसक कोशिशों के बावजूद भी इस भूमि को विशेष रंग में नहीं रंगा जा सका। एक धर्म का पालन अर्थात आध्यात्म का सुप्त होना और सिर्फ भेड़चाल की शुरुआत होना है। जब ब्रह्माण्ड में इतनी विभिन्नता है तो फिर आध्यात्म कैसे एकांगी हो सकता है। शरीर का दक्षिण भाग नाभी के नीचे का हिस्सा माना जाता है अर्थात वह भाग जिससे कि विसर्जन क्रिया मुख्य कार्य है, दक्षिणी हिस्से के। प्राण कभी भी दक्षिण हिस्से से नहीं निकलते हैं। मूलतः प्राणों की गति ऊर्ध्वगामी है। प्राण अगर शरीर से निकलते हैं, तो वह कानों के द्वारा निकल सकते हैं, मुख के द्वारा या फिर आँखों के द्वारा। निचले हिस्से में तो प्राण त्यागने की प्रवृति ही नहीं होती है। वे तो बस भोग के कारण ही प्रादुर्भाव में आते हैं। आप भोग की प्रक्रिया बंद कर दें तो फिर न तो मल-मूत्र त्यागने की जरूरत है, न ही वीर्य निष्कासन की। लामाओं में प्राण त्यागते समय गर्दन में पीछे श्वास नलिका एवं कर्ण नलिका से संबंधित नाड़ी चक्रों को इस प्रकार से बंदर कर दिया जाता है कि प्राण केवल नेत्रों के द्वारा ही निकल सके। सीधा कारण है नेत्रों के द्वारा निकला प्राण प्रकाश की रश्मियों पर आरूढ़ होगा। यही प्राण अन्य दिव्य लोकों की यात्रा करने में सक्षम होगा। ध्वनि के साथ मुख से निकला प्राण वायुमण्डल में ही गतिशील होगा। इसी प्रकार अगर दुर्घटनावश शरीर का निचता हिस्सा क्षतिग्रस्त होता है, तो प्राण अधोगामी होकर भूत योनियों में भी भटक सकते हैं। हमारे मस्तिष्क के दक्षिणी भाग में आज तक वैज्ञानिक नहीं पहुंच पाये हैं। यह वही भाग है, जहाँ पर काम की विचित्रतायें, रहस्य, अनेकों जन्मों की स्मृति, सुप्त कर्म, विचित्र व्यवहार सब कुछ दबा पड़ा हुआ है। एक तरह से यह हिस्सा मस्तिष्क के अंदर मौजूद विभिन्न क्रियाओं, कर्मों, विचित्रताओं को एकत्रित करने के लिए उपयोग किया जाता है। इस हिस्से के कब क्या निकल पड़ेगा, कहना बड़ा मुश्किल है। अतः जब तक यह दक्षिणी भाग सुव्यवस्थित, निर्मल और स्वच्छ नहीं होता है, आध्यात्म की यात्रा असंभव है। इसके बोझ तले समस्त आध्यात्मिक चिंतन विकृत हो जाएगा।


                महाकाली इसी दक्षिणी भाग को नियंत्रित करने वाली परम शक्ति हैं। उन्हीं की आराधना से ढंका हुआ यह हिस्सा अनावृत हो सकता है। उन्हीं का प्रकाश इस कालिमा युक्त भाग को प्रकाशित कर सकता है। दक्षिणी हिस्से से निकली विचित्र शक्तियाँ शरीर रूपी व्यवस्था को मथकर रख देती हैं। वास्तव में दक्षिण ही नर्क का द्वार है। यही भाग क्रियाशील होने पर मनुष्य को भोगी, कामी, विलासी और व्यभिचारी बनाता है। समस्त ऊर्जा व्यर्थ करवाने की दक्षिण में अटूट शक्ति है। सभी योगियों, ऋषियों और तपस्वियों को अगर सहस्रार की तरफ यात्रा करनी है, तो दक्षिण को बंधनयुक्त रखने के साथ-साथ महाकाली की शकित से इसकी नारकीय शक्तियों का शमन भी करना होगा। दक्षिण दिशा का राजाध्यक्ष यमराज है। यमराज सूर्य पुत्र भी है। मनुष्यों के प्राणों को शरीर से विमुख करने का मुख्य कार्य यमराज का ही है। इसलिए इस पृथ्वी पर सभी योनियाँ जाने-अनजाने में अत्यधिक भोगी हो जाती हैं, अर्थात् शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होती हैं। ऋषिगण कई सौ वर्ष इसलिए जीवित रहते हैं क्योंकि वे प्राणों को हमेशा ऊर्ध्वगामी ही रखते हैं। ऊर्ध्वगामी प्राण यमराज के द्वारा नियंत्रित नहीं होते। इस प्रकार के दिव्य प्राण महाकाली की कृपा से ही अपनी इच्छानुसार विसर्जित होते हैं। महाकाली के साधकों को यमराज इसलिए छोड़कर भाग जाता है। जिन्होंने महाकाली को आत्मसात किया, वे कर्मफलों के कुचक्र से मुक्त हो जाते हैं। अहंकार, क्रोध, मद, सत्ता यह सब पुरुष वाचक हैं। पुरुष प्रवृत्ति दक्षिणगामी होती है, तो वहीं महाकाली को वामा कहते हैं। भगवान शिव स्वयं शव बनकर काली के चरणों में लेटे हुए हैं। वे भी काली के सामने नतमस्तक हैं। तो फिर महाकाली का साधक तो निश्चित ही पुरुषत्व पर विजय प्राप्त कर महामोक्ष को प्राप्त करता है। सभी साधक, सभी धर्मप्रेमी एवं आध्यात्मिक पथ के जिज्ञासु बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझ लें कि माँ त्रिपुर सुंदरी का महाकाली स्वरूप सबसे सरल, सबसे निर्मल और सबसे आसानी से दर्शन किया जाना वाला स्वरूप है। महादेवी के ज्ञान स्वरूप, लक्ष्मी स्वरूप या किसी अन्य स्वरूप की प्राप्ति इसलिए थोड़ी कठिन है कि साधक अपने अवरोध नहीं हटा पाता है। परंतु महाकाली ही अवरोधों को हटाती है। यह तर्क की महाकाली तामस गुणों का प्रतिनिधित्व करती है, अधकचरा एवं बेबुनियाद है। जो कभी महाकाली के मंदिर में गया ही नहीं कभी काली उपासना की ही नहीं, बस उन्हीं ने कागज के ऊपर अपने तथाकथित विचारों को उतार दिया। 99 प्रतिशत आध्यात्मिक लेखक तो बस बंद कमरे में बैठकर कुछ भी ऊटपटांग लिखते रहते हैं। काली दर्शन अत्यंत ही गंभीर विषय है। सरलता के साथ इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह शक्ति जो सभी आबद्धताओं को खंड खंड करती है, उसे किसी विचार विशेष में आबद्ध करना कदापि उचित नहीं है। अधिकांशतः लोग ध्यान क्यों नहीं कर पाते? श्रद्धा एवं भक्ति के तत्व उनमें पल्लवित क्यों नहीं हो पाते? मैंने अपने जीवन में अनगिणत ऐसे व्यक्ति को गुरु सान्निध्य में आते देखा है, तो कि प्रारंभ में तो आध्यात्म के प्रति अधिक जिज्ञासु और उत्साही लगते हैं, परंतु 6 महीने या वर्ष भर के भीतर उच्चाटन से भर जाते हैं और फिर मल-मूत्र के रास्ते में लिप्त हो जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि उनमें काली तत्व विकसित ही नहीं हो पाता है। इतनी ताकत नहीं आ पाती है कि दुनियाभर के जंजालों को काटकर आगे बढ़ सकें और अंत में अधोगति प्रापत करते हुए यमराज के द्वारा घसीट-घसीट कर उनके प्राण ले जाये जाते हैं। प्रत्येक धर्म मंे एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ जाकर व्यक्ति वह सब कुछ कह सके, उन सब बातों को प्रकट कर सके, अपने अंदर छिपी हुई भावनाओं को व्यक्त कर सकें, जिसके बोझ तले वह दबा जा रहा है, उसे घुटन महसूस हो रही है, इत्यादि-इत्यादि। अघोरपन निर्मलता का प्रतीक है। सब कुछ त्यागने का प्रतीक, वेदांत दर्शन की रीढ़ की हड्डी है यह पंथ। इस पंथ पर चला साधक महाकाली को इष्ट मानता है। सब कुछ माता के सामने व्यक्त कर देता है। अघोर पंथी समाज में नहीं रहता। वह समाज को छोड़ श्मशान को अपनाता है। वह वस्त्र इसलिए नहीं त्यागता कि उसे प्रदर्शन करना है, बल्कि इसलिए कि अभेदात्मक दृष्टिकोण केा आत्मसात कर सके। उसके लिए श्मशान शहर है, तो वहीं समाज श्मशान। अर्थात समाज में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि व्यक्ति परिष्कृत हो सके। श्मशान में निवास करने की पहली शर्त है सभी भयों से मुक्ति। जो मरकर भी श्मशान में जलने से डरते हैं, वो क्या महाकाली साधना करेंगे? परंतु अघोर साधक तो प्रतिदिन महाकाली की शक्ति से प्रतिक्षण मस्तिष्क में सुप्त काम, क्रोध, भय, हिंसा, मद, लालच, व्यभिचार को मृत्यु प्रदान कर अमृत्व की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ता है। मस्तिष्क की सफाई सबसे कठिन कार्य है। जीवन की क्रम श्रृंखला के कारण अनेकों दोष शरीर में स्थापित हो जाते हैं। अनेकों कर्म संपूर्ण जीवन बाधित करते रहते हैं। अघोर पंथी एकांत में नृत्य करते हैं, साधनायें करते हैं। संपूर्ण रात्रि स्वयं का निरीक्षण करते हें। समाज को एक ऐसी जगह से अतिसूक्ष्म दृष्टि से देखते हैं कि अंदर छुपा हुआ सारा मैल कट-कटकर गिरने लगता है। इंद्रियों की लोलुपता काम प्रवृत्ति के कारण प्राणों का निम्नगामी होना सभी कुछ धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। असुरक्षा के भाव समाप्त करने का एकमात्र साधन अघोर पंथ ही है। सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, मानसिक सुरक्षा और तथाकथित आध्यात्मिक सुरक्षा की प्रवृत्ति का शमन अघोरी ही कर सकता है। अघोरी का तात्पर्य केवल श्मशानवासी ही नहीं है। भौतिक रूप से श्मशान अर्थात प्रत्येक शहर के या गाँव के दक्षिण में स्थित वह स्थान जहाँ पर शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है। अर्थात परम शांति स्थल, जहाँ परम शांति है, वहीं श्मशान है। श्मशान तो घर के एक कमरे में भी हो सकता है। अभौतिक श्मशान इसे आप कह सकते हैं। निर्बीज स्थल। निर्बीजता ही वैराग्य को जन्म देगी। राख, अस्थि, कंकाल यह सब केवल भौतिक चिन्ह है, या प्रतीक हैं श्मशान के, वास्तविक श्मशान से इनका कोई लेना-देना नहीं है। जन साधारण की सोच संकीर्ण होती है। मांस का मतलब वे केवल किसी जीव की खाल के नीचे जमी परत से लगाते हैं। परंतु अघोरियों के लिए मांस तो फल का गूदा भी हो सकता है। किसी वृक्ष की छाल के नीचे का तना भी। सीधी सी बात है। उनके अंदर ग्रहण करने के यंत्र अति में विकसित होते हैं। ज्ञानरूपी बीज से भी मांस का उदय संभव है। जहाँ बीज है, वहाँ मांस तो होगा ही। महाकाली अनावृत्त है। किसी भी प्रकार का लाग-लपेट बनाव श्रृंगार दो विपरीत धारायें हैं। अघोरी अगर बनाव श्रृंगार किये हुए दिखते हैं, तो वे ढोंगी हैं। वास्तविक अघोरी कभी समाज में आते ही नहीं हैं। एक बार छोड़ा तो फिर छोड़ा, लौटकर आने की कोई जरूरत नहीं। अघोरी को अगर कामवासना समाप्त करनी है तो फिर समाप्त करनी है। ध्यान रहे काम वासना जोर-जबरदस्ती से समाप्त नहीं की जा सकती है। विरासत में मिली कामुकता समाप्त करने के अनेकों गुप्त तरीकें हैं, जिनका यहाँ पर वर्णन उचित नहीं होगा। यह बात साधकों तक ही सीमित रखनी चाहिए। साधक विरासत में मिली कामवासना को समाप्त करने के लिए रोता है, गिड़गिड़ाता है, विनती करता है, महाकाली के समक्ष तब कहीं जाकर महाकाली की परम शक्ति अनेकों परीक्षाओं के पश्चात काम शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाकर साधक को आत्मसात कर लेती है। बस यहीं पर साधक मृत्युंजय हो जाता है। सच्चाई तो यह है कि प्रत्येक साधु-संत, आध्यात्मिक पुरुष सभी के सभी ब्रह्मचर्य प्राप्ति के लिए तड़पते रहते हैं। वासना से मुक्ति अघोरियों का परम लक्ष्य है। ब्रह्मचर्य अति दुलर्भ अवस्था है। इसे प्राप्त करते ही वास्तविक आध्यात्म का उदय होता है। श्यामा साधना संपन्न करवाने से पहले गुरु ऐसी स्थिति निर्मित कर देता है, कि शिष्य किसी स्त्री के साथ पूर्ण रूप से निर्वस्त्र घंटों सान्निध्य में रहे और अगर जरा सा भी दृष्टिदोष शिष्य की आँखों में दिखाई पड़ता है, तो महाकाली की शक्ति से आत्मसात गुरु न तो शिष्य को श्यामा दीक्षा प्रदान करता है और न ही ब्रह्मचर्य का मार्ग। श्यामवर्णी तो महाकाली ही है। नौटंकीबाज जो कि स्त्री संभोग को मोक्ष का मार्ग समझते हैं, वे न तो अघोरी हैं और न ही काली साधक। स्वामी रामकृष्ण परमहंस 14 वर्ष की उम्र में ही अपनी पत्नी को माता के रूप में स्वीकार कर चुके थे। महर्षि अरविन्द ने भी पत्नी को मातृरूप में स्वीकार किया, तब कहीं जाकर महाकाली के साधक बन पाये। लोलुप कदापि महाकाली से संस्पर्शित नहीं हो सकते। एक-एक करके सभी वासनाओं, लिप्तताओं, व्यसनों को त्यागना पड़ेगा। तब कहीं जाकर अंदर मधु का उत्पादन संभव हो पाएगा। उस मधु को जिसे पीकर महाकाली मदमस्त होती हुई रक्तबीज का वध कर रही है। श्मशान भूमि को साधना स्थली बनाने का तात्पर्य ही बाहरी आयामों को त्यागना है। अगर श्मशान में बैठकर शराब पीनी है, स्त्री संभोग करना है और मांस भक्षण करना है, तो फिर क्या जरूरत है श्मशान जाने की। यह सब समाज में चंद रुपयों में आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। वहाँ तो बस गिड़गिड़ाना है, विनती करनी है महाकाली के चरणों में एक बालक के समान, इन सब असुरों से मुक्ति पाने के लिए। आपके पवित्र आह्वान को महाकाली कभी नहीं टाल सकती। वे स्वयं भक्षण कर लंेगी, आपके काम का, आपके भय का, आपकी वासनाओं का, लिप्तताओं का और मोह का। यह सब रक्तबीज हैं। एक के बाद एक इनसे कुछ न कुछ समस्यायें खड़ी होती रहती हैं। तिब्बती लामाओं में जब साधक उच्च अवस्था में पहुंचता है, तो उसे ऐसी गुफाओं में बंद कर दिया जाता है, जहाँ पर विभिन्न मुद्राआंे में कामुक चित्र बने होते हैं। दुनिया भर का कामुक साहित्य उपलब्ध होता है, जिससे कि साधक देख ले काम के भंडार को। अगर उसका मन फिसलता है, तो वापस चला जाय, संसार में और इसके पश्चात् भी अगर साधक काजल की कोठरी से बेदाग निकलता है, तो वह महाकाली की उपासना संपन्न करता है। महाकाली स्पष्टता है। जो बात है, सीधी है। गृहस्थ बनना है, तो एक अच्छे गृहस्थ बनकर रहो। आध्यात्म के पथ पर चलना है तो वास्तव में चलो। अधकचरा कार्य मत करो। मात्र काली पूजन से ही गृहस्थ सुखमय जीवन, काम की पूर्णता आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। महाकाली गृहस्थों को काम शक्ति प्रदान करती हैं, तो वहीं आध्यात्मिक साधकों के कामभाव का शमन भी करती हैं। परंतु स्पष्टता अत्यधिक आवश्यक है। दोनों चीजें एक साथ नहीं चलेंगी। नृत्य, अट्टहास, युद्ध, काम, संगीत, यात्रा, प्रार्थना, अश्रु, आवेग, मनोभाव यह सब महाकाली के अंश हैं। मस्तिष्क के दक्षिण भाग में बैठे शक्ति केंद्रों को शांत और निष्कासित करने के लिए इन सबके द्वारा अघोरपंथी मस्तिष्क की गहराइयों तक पहुंच प्रचण्डता के साथ अवरोधी तत्वों को निकाल फेंकते हैं। जैसे-जैसे समाज चेतना की तरफ बढ़ता है, वहाँ वस्त्रों का उपयोग कम होने लगता है। आप जिस चीज को जितना ढंकोगे, जितना छिपाओगे, वह आपको उतना ही परेशान करेगी। वैदिक संस्कृति में स्त्रियाँ कटि से ऊपर केवल आभूषण ही धारण कती थी। परंतु पुरुषों की आँखों में निर्मलता अत्यधिक थी। शरीर को अधिक वस्त्रमय बनाना पाश्चात्य और इस्लामी संस्कृति की देन है। वे भी जाने-अनजाने में रात्रि में श्मशान भूमि के अघोरियों के समान ही नृत्य करते हैं। क्या करें, उपासना तो आती नहीं है। नृत्य के बहाने ही अंदर बैठे मल को निकालने की कोशिश करते हैं। ध्यान के द्वारा प्राण शक्ति को ब्रह्मरंध्र में केंद्रित तो कर नहीं सकते। विभिन्न व्यसनों के द्वारा कुछ क्षण के लिए मस्तिष्क को बंधन मुक्त बनाने की कोशिश करते हैं। अघोर पंथ में बाहरी आयाम सर्वथा वर्जित है। जो कुछ करना है, आंतरिक आयामों के जरिये, परंतु समाज में ठीक इसके विपरीत क्षण भर के लिए काली तत्व से परिचित होने के लिए नाना प्रकार के बाहरी आयामों का उत्पादन किया जाता है। प्रत्येक गुरु शिष्य को वास्तव में अघोर मार्ग की ओर ही ले जाता है। यही परम कल्याणकारी मार्ग है। भगवान श्रीकृष्ण; अर्जुन को इसी मार्ग की तरफ ले गये। सिर कटने से, मृत्यु को प्राप्त होने से, स्वजनों के मोह से, सबसे मुक्त कराया उन्होंने अर्जुन को। अघोर और निष्कामता एक ही विषय है। यह महाकाली की मूल शक्ति है। भगवान शिव भी अघोरेश्वर हैं, समस्त विषयों से मुक्त। महाकाली भी समस्त विषयों की दहनकर्त्ता हैं। रक्तबीज जैसे असुर के घृणित विषरूपी रक्त को भी दहन कर देती हैं, स्वयं के अंदर स्थित ब्रह्माण्डीय श्मशान में। इसी श्मशान की प्रेममयी प्रवृत्ति के कारण समस्त देवगण, इन्द्र, ब्रह्म उनका स्तुतिगान करते रहते हैं।

                                                                        --- परमपूज्य गुरुदेव श्री श्री अरविंद सिंह जी

(साधना सिद्धि विज्ञान, फरवरी: 2000, महाकाली विशेषांक में, पेज नंबर- 48 से 51 में)

 


प्रस्तुति :- श्री अभिषेक कुमार, मंत्र, तंत्र, यन्त्र विशेषज्ञ, शक्ति सिद्धांत के व्याख्याता, दस महाविद्याओं के सिद्ध साधक, श्री यन्त्र और दुर्गा सप्तशती के विशेषज्ञ, ज्योतिषाचार्य एवं वास्तुशास्त्री.

Mob:- 9852208378,  9525719407  

मिलने का वर्तमान पता:-
पुष्यमित्र कॉलोनी, संपतचक बाजार
(गोपालपुर थाना और केनरा बैंक के बीच/बगल वाली गली में)
इलेक्ट्रिक पोल नंबर-6 के पास
पोस्ट-सोनागोपालपुर, थाना-गोपालपुर
संपतचक, पटना-7
नोट:-संपतचक बाजार, अगमकुआँ में स्थित शीतला माता के मंदिर से लगभग 8 किमी॰ दक्षिण में स्थित है। नेशनल हाईवे - 30 के दक्षिण में एक रोड गयी है, जो पटना-गया मेन रोड के नाम से जाना जाता है। इस रोड पर ही बैरिया बस स्टैण्ड है। इसी बस स्टैण्ड के दक्षिण संपतचक बाजार स्थित है। यहीं केनरा बैंक के ठीक बगल वाली गली में मेरा मकान है। जहाँ आप सभी धर्मप्रेमी भक्तजन/जिज्ञासु समय लेकर मुझसे कभी भी मिल सकते हैं।
 

 

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