मंत्रों का विशिष्ट विज्ञान

मंत्रों का विशिष्ट विज्ञान


मननात् त्रायते इति मंत्र’ अर्थात् जिसके मनन से त्राण मिले, वह मंत्र है। मंत्र अक्षरों का ऐसा दुर्लभ, विशिष्ट एवं अनोखा संयोग है, जो चेतना जगत को आंदोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। मंत्रविद्या से कुछ भी संभव हो सकता है | अतएव संभव होता भी है। इस विद्या से असाध्य सहज ही साध्य होता है। जो इस विद्या के सिद्धांत एवं प्रयोगों से परिचित हैं, वे प्रकृति की शक्तियों को मनोनुकूल मोड़ने, मरोड़ने में समर्थ होते हैं। वे प्रारब्ध के साथ खेल खेलते हैं। जीवन की अकाट्य कर्मधाराओं को अपनी इच्छित दिषा में मोड़ने और प्रवाहित होने के लिए विवष कर देते हैं। यह अतिश्योक्ति नहीं, एक यथार्थ है।
मंत्र का यदि कोई अर्थ खोजे तो उसे वहाँ अर्थ मिल भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि मंत्र की संरचना, बनावट एवं बुनावट अपने ढंग से होती है। बुद्धिमान व्यक्ति मंत्र को पवित्र विचार के रूप में परिभाषित करते हैं। उनका ऐसा कहना, मानना अनुचित नहीं है, क्योंकि मंत्र के माध्यम से अपने इष्ट से पवित्र भाव एवं विचार के साथ प्रार्थना की जाती है, परंतु इसके बावजूद मंत्र की परिभाषाओं की अपनी एक सीमा होती है और इस सीमा में मंत्र को परिभाषित कर पाना लगभग असंभव जैसा है। मंत्र की परिभाषा में मंत्र के सभी आयाम नहीं समा सकते, क्योंकि मंत्र बहुआयामी होता है। दरअसल मंत्र के अक्षरों का संयोजन इस ढंग से होता है कि उससे कोई अर्थ प्रकट होता है, परंतु कई बार यह संयोजन इतना अटपटा होता है कि इसका कोई अर्थ नहीं खोजा जा सकता।
मंत्रवेत्ता ही मंत्र की संरचना और उसके प्रभाव के बारे में स्पष्ट जानकारी दे सकते हैं। केवल उन्हें ही इसकी समग्र जानकारी होती है। दरअसल मंत्रवेत्ता मंत्र की संरचना किसी विषेष अर्थ या विचार को स्थान में रखकर नहीं करते। वे तो बस, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का किसी विषेष धारा से संपर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि के विकास के रूप में करते हैं।

मंत्रवेत्ता कोई भी नहीं हो सकता है और यहाँ तक कि कोई अतिशय बुद्धिमान व्यक्ति भी मंत्र की रचना करने में समर्थ नहीं होता है। मंत्रवेत्ता वही हो सकता है, जो तप-साधना के शिखर पर आरूढ़ हो और जिसकी दृष्टि सूक्ष्म एवं व्यापक, दोनों ही हो। मंत्रवेत्ता को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के नियमों एवं विधानों के बारे में पता होता है और वे मंत्र के द्वारा इस ऊर्जा का किसी विशेष प्रयोजन हेतु नियोजन करने की क्षमता रखते हैं। अतः मंत्र कोई भी हो, वैदिक अथवा पौराणिक या फिर तांत्रिक, इसी विधि के रूप में प्रयुक्त होता है।
मंत्रवेत्ता अपनी साधना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न एवं विशिष्ट धाराओं को देखते हैं। ब्रह्माण्ड में ऊर्जाओं की विविध धाराएं प्रवाहित होती रहती हैं। ये कुछ ऐसा है- जैसे कुशल इंजीनियर धरती के अंदर जलस्तर को देखता है और वहाँ तक खोदकर मोटे पाईप के माध्यम से वहाँ का जल निकाल लेता है। ठीक उसी तरह से मंत्रवेत्ता ब्रह्माण्ड में प्रवाहित इन विभिन्न ऊर्जाधाराओं से संपर्क साधकर और इस ऊर्जा का विशिष्ट नियोजन करके मंत्र की संरचना करते हैं। मंत्र की अधिष्ठात्री शक्तियाँ जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है, उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष के प्रतिबिम्ब के रूप में मंत्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रकट होता है। इसे ऊर्जाधारा या देवषक्ति का शब्दरूप भी कह सकते हैं। मंत्रविद्या में इसे देवषक्ति का मूलमंत्र कहते हैं।

देवशक्ति के ऊर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण-धारण करना है उसी के अनुरूप इस देवता के अन्य मंत्रों का विकास होता है। यही कारण है कि एक देवता या देवी के अनेकों मंत्र होते हैं, जैसे राहु देवता का बीजमंत्र, वैदिक मंत्र, पौराणिक मंत्र अलग-अलग होते हैं। इनका प्रभाव भी अलग-अलग होता है। इनमें से प्रत्येक मंत्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध व सार्थक करने में समर्थ होता है। कुछ मंत्र इतने प्रभावशाली होते हैं कि उनके जप के साथ ही उनके प्रभाव और परिणाम दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इस संदर्भ में बीजमंत्रों को लिया जा सकता है, जिसके प्रभाव त्वरित व अल्पकालिक होते हैं। वैदिक मंत्रों का प्रभाव लंबे समय के बाद परंतु दीर्घकालिक होता है।
प्रक्रिया की दृष्टि से मंत्र की कार्यशैली अद्भुत एवं अनोखी है। इसकी साधना का एक विषिष्ट क्रम पूरा होते ही यह साधक की चेतना का संपर्क ब्रह्माण्ड की विषिष्ट ऊर्जाधारा या देवशक्ति से कर देता है। यह इसके कार्य का पहला आयाम है। इसके दूसरे आयाम के रूप में यह साथ-ही-साथ साधक के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उस विषिष्ट ऊर्जाधारा अथवा देवषक्ति के लिए ग्रहणशील बनाता है। मंत्र से साधक का व्यक्तित्व प्रभावित ही नहीं होता है, बल्कि उसके कतिपय गुह्य केंद्र जाग्रत हो जाते हैं। ये जाग्रत केंद्र सूक्ष्मशक्तियों को ग्रहण करने, धारण करने में एवं उनका निर्माण करने में समर्थ होते हैं। ऐसी स्थिति में ही मंत्र सिद्ध होता है।

मंत्र-साधना की एक अपनी प्रक्रिया होती है। हर साधक के अनुसार मंत्र का चयन होता है और यह चयन साधक एवं मंत्र की प्रकृति के अनुरूप होता है। इस तरह मंत्र को सिद्ध करने के लिए मंत्र की  प्रकृति के अनुसार अपने जीवन की प्रकृति बनानी पड़ती है। मंत्र साधना के विधि-विधान के सम्यक् निर्वाह के साथ साधक को अपने खान-पान, वेष-विन्यास, आचरण-व्यवहार को देवता या देवी की प्रकृति के अनुसार ढालना पड़ता है। उदाहरण के लिए बगलामुखी मंत्र की साधना के लिए पीले वस्त्र एवं पीले आसन, पीले प्रकाष एवं पीले खान-पान को अपनाना पड़ता है। इस मंत्र को पीली चीजों से बनी माला से जपना होता है। तभी इस मंत्र का सार्थक प्रभाव पड़ता है। चंद्रमा एवं शुक्र मंत्र के लिए श्वेत वस्त्र, श्वेत आसन एवं श्वेत खान-पान की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा आचारण-व्यवहार में भी पवित्रता का सम्यक् समावेष जरूरी है। इन सब चीजों को अपनाकर मंत्र सिद्ध होता है, उसके प्रभाव परिलक्षित होते हैं।
मंत्रों की अपनी-अपनी प्रकृति होती है और ये अपनी प्रकृति के अनुसार न केवल व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं, बल्कि ये प्रकृति में भी अपनी छाप छोड़ते हैं। सूर्यमंत्र के एक विषिष्ट विधान से सूर्य की ऊर्जा का संदोहन किया जा सकता है। इससे सूर्य का तापक्रम घटने लगता है और धरती में शीतलता बढ़ने लगती है। इस प्रयोग से प्रकृति एवं पर्यावरण में भारी उथल-पुथल हो सकती है। ऐसे प्रयोग अनेकों बार किए भी जा चुके हैं। मनुष्य के अंदर स्थित कुंडलिनी के स्थान पर धरती की अपनी एक कुंडलिनी है, जो उत्तरी ध्रुव से निकलकर दक्षिणी ध्रुव तक एक रेखा के रूप में पहुंचती है। इसे भी मंत्र विधान से जाग्रत किया जा सकता है। यह प्रक्रिया भी की जा चुकी है।
मंत्र प्रकृति की ऊर्जा का संदोहन एवं संरक्षण या पोषण करता है। कुछ तांत्रिक मंत्रों की प्रकृति और तीव्रता इतनी अधिक होती है कि इससे प्रकृति की ऊर्जा का दोहन होने लगता है। तांत्रिक मंत्र प्रकृति की ऊर्जा का बुरी तरह से दोहन एवं शोषण करते हैं। इसलिए तांत्रिक मंत्रों के प्रयोग से प्रकृति में घोर उथल-पुथल एवं असंतुलन पैदा हो जाता है। इसके लिए ऐसे विधान किए जाते हैं, जिनसे प्रकृति को पोषण मिलता रहे। इन मंत्रों से प्रकृति पोषित होती है तथा इसका विकास होता है। इन मंत्रों में गायत्री मंत्र, महामृत्यंजय मंत्र आदि आते हैं। विशिष्ट मंत्रों से किए जाने वाले यज्ञ-हवन से भी प्रकृति पोषित होती है।

साधक अपने मंत्र को सिद्ध कर असंभव को संभव करता है, असाध्य को साध्य करता है और मनचाहे ढंग से अपने संकल्प के अनुसार उसका नियोजन कर सकता है। मंत्र की शक्ति एवं प्रकृति के अनुसार वह स्वयं की गंभीर समस्याओं के साथ ही दूसरों की असाध्य बीमारियों को भी ठीक कर सकता है। अतः प्रकृति के अनुसार मंत्रों का चयन कर विधि-विधान से मंत्र का जप करना चाहिए।


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